________________ श्रीमत्सूत्रकृताङ्गम् :: श्रुतस्कंधः 1 अध्ययनं 4 ] / 156 // 26 // संलोकणिजमणगारं, पायगयं निमंतणेणाहंसु / वत्थं च ताइ ! पायं वा, अन्नं पाणगं पडिग्गाहे ॥३०॥णीवारमेवं बुज्झेजा, णो इच्छे अगारमागंतु / बद्धे विसयपासेहिं, मोहमावज्जइ पुणो मंदे // 31 // तिमि (गाथाग्रं 287) // इति चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकः / / 4-1 // // अथ चतुर्थाध्ययने द्वितोयोद्देशकः // योए सया ण रज्जेजा, भोगकामी पुणो विरज्जेजा। भोगे समणाण सुणेह, जह मुंजंति भिक्खुणो एगे // 1 // अह तं तु भेदमावन्नं, मुच्छितं भिक्खु काममतिवटें / पलिभिदिया णं तो पच्छा, पादुटु मुद्धि पहणंति // 2 // जइ केसिया णं मए भिक्खू, णो विहरे सह णमिस्थीए / केसाणऽविह लुचिस्सं, नन्नत्थ मए चरिजासि // 3 // ग्रह णं से होई उबलद्धो, तो पेसंति तहाभूएहिं / अलाउच्छेदं पेहेहि, वग्गुफलाइं थाहराहित्ति // 4 // दारूणि सागपागाए अन्नपागाय, पजोयो वा भविस्सती रायो / पाताणि य (पोताणि य) मे रयावेहि, एहि ता मे पिट्ठयोमद्दे // 5 // वत्थाणि य मे पडिलेहेहि, अन्नं पाणं च याहराहित्ति। गंधं (गंथं) / रयोहरणं च, कासवगं च मे समणुजाणाहि // 6 // अदु अंजणिं अलंकारं, कुक्कययं (कुक्कुइयं-घर्घर) मे पयच्छाहि / लोद्धं च लोद्ध कुसुम च, वेणुपलासियं च गुलियं च // 7 // कुटं तगरं च अगरु, संपिटटं मम्मं उसिरेणं / तेल्लं मुहभिजाए (भिगडलिजाए-भिलिजए) वेणुफलाई सनिधानाए // 8 // नंदीचुराणगाई पाहराहि, छत्तोबाणहं च जाणाहि / सत्थं च सूवच्छेजाए, वाणीलं च वत्थयं रयावेहि // 1 // सुफाणि व सागपागाए, अामलगाइं दगाहरणां च / तिलगकरणिमंजणगलागं, प्रिंसु मे विहणायं विजाणेहि // 10 // संडासगं च फणिहं च,