________________ [ 71 श्री आचाराङ्ग-सूत्रम् :: श्रुतस्कंधः 2 अध्ययनं 2 ] पढिवन्ना खलु एए भयंतारो, ग्रहमेगे सम्म पडिवन्ने, जे एए भयंतारो एयायो पडिमायो पडिवजित्ता णं विहरंति जो य अहमंसि एवं पडिमं पडिवजित्ता णं विहरामि सम्वेऽवि ते उ जिणाणाए उवट्ठिया अन्नुन्नसमाहिए, एवं च णं विहरति, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं जाव सया जएजामि त्ति बेमि ॥सू० 63 // // इति एकादशम उद्देशकः // 2-1-1-11 // // इति प्रथममध्ययनम् ॥श्रु० २-चू० 1-201 // 2: शय्यैषणा-अध्ययनं 2 :: उद्देशकः-१ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिजा उवस्सयं एसित्तये अणुपविसित्ता गामं वा जाव रायहाणि वा. से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा सग्रंडं जाव ससंताणय तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा सिज वा निसीहियं वा चेइजा 1 / से भिक्खू वा (2) से जं पुण उवस्सयं जाणिजा अप्पंड जाव अप्पसंताणयं तहप्पगारे उवस्सए पडिलेहित्ता पमजित्ता तो संजयामेव ठाणं वा (3) चेइजा 2 / से जं पुण उवस्मयं जाणिज्जा अस्सि पडियाए एगं साहम्मियं समुदिस्स पाणाई (1) समारब्भ समुदिरस कीयं पामिच्चं अच्छिज्ज अणिसट्ठ अभिहडं ग्राहट्ट चेएइ, तहप्पगारे उवस्सए पुरिसंतरकडे वा जाव अणासेविए वा नो ठगणं वा (3) चेइजा 3 // एवं बहवे साहम्मिया एगं साहम्मिणिं बहवे साहम्मिणीयो 4 / से भिक्खू वा (2) से जं पुण उवस्मयं जाणेजा अस्संजए भिक्खुपडियाए बहवे समणमाहणपतिहिकिवणवणीमए पगणिय (2) समुद्दिस्स तं चेव भाणियव्वं 5 // से भिक्खू वा (2) से जं पुण उवस्मयं जाणिज्जा, बहवे समणमाहणपतिहिकिविणवणीमए पगणिय (2) समुदिस्स पाणाई (4) जाव चेएत्ति, तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविए नो ठगणं वा (3) चेइज्जा (3) 6 / अह पुणेवं