________________ श्री आचाराङ्गसूत्रम् : श्रुतस्कंधः 1 अध्ययनं 5 ] [ 25 जे पुबुदाइ पच्छानिवाइ जे नो पुबुढायी नो पछानिवाइ, सेवि तारिसिए सिया, जे परिन्नाय लोगमन्नेसयंति ॥सू० 152 // एवं नियाय मुणिमा पवेइयं, इह याणाकंखी पंडिए अणिहे, पुव्यावररायं जयमाणे, सया सीलं सुपेहाए सुणिश भवे अकामे अझंझे, इमेण चेव जुमाहि किं ते जुज्झेण बज्मायो ? ॥सू. 153 // जुद्धारिहं खलु दुल्लहं, जहित्थ कुसनेहिं परिन्नाविवेगे भासिए, चुए हु बाले गभाइसु रजइ (रिज्जइ) अस्मि चेयं पवुच्चइ, रूवंसि बा, छणंसि वा से हु एगे संविद्धपहे (संवद्धिभयेसंचिटुपहे) मुणी, अन्नहा लोग वेहमाणे, इय कम्म परिगणाय सबसो से न हिसइ, संजमइ नो पगभइ, उवेहमाणो पत्तेय सायं, वराणाएसी नारंभे कंचणं सबलोए एगप्पमुहे विदिसप्पइन्ने निबिराणचारी अरए पयासु ॥सू. 154 // से वसुमं सबसमन्नागयपन्नाणेणं यप्पाणेणं अकरणिज्ज पावकम्मं तं नो अन्नेसी, जं संमंति पासहा तं मोणंति पासहा, जं मोणंति पासहा तं संमंति पासहा, न इमं सक्कं सिढिलेहिं अदिज्जमाणेहिं गुणासाएहि वंकसमायारेहिं पमत्तेहिं गारमावसंतेहिं, मुणी मोणं समायाए धुणे सरीरगं पंतं लुहं सेवंति वीरा सम्मत्तदंसिणो, एस योहन्तरे मुणी, तिराणे मुत्ते विरए वियाहिए त्ति बेमि ॥सू. 155 // // इति तृतीयोद्देशकः // 5-3 // // अध्ययनं-५ : उद्दशकः-४ // गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स दुज्जायं दुप्परक्कंतं भवइ अवियत्तस्स "भिक्खुणो ॥सू. 156 // वयसावि एगे बुझ्या कुप्पंति माणवा, उन्नयमाणे य नरे महया, मोहेण मुज्झइ, संवाहा बहवे भुज्जो (2) दुरइक्कम्मा अन्नाणयो अपासयो, एयं ते मा होउ, एयं कुसलस्स दंसणं, तहिट्ठिए तम्मुत्तिए तप्पुरकारे तस्सन्नी तन्निवेसणे, जयं विहारी चित्तनिवाइ पंथनिभाइ पलिबाहिरे, पासिय पाणे गच्छिज्जा ॥सू० 157 // से अभिकममाणे, पडिकममाणे