________________ ( 2 ) संवा नवीन तत्वोंको तत्कालीन दार्शनिक विचारधारा में से अपना कर अपने तत्वोंको व्यवस्थित किया यह भी स्पष्ट हो सकेगा। ... आगमयुगके दार्शनिक तत्त्वोंके विवेचनमें मैंने श्वेताम्बर प्रसिद्ध मूल आममों / का ही उपयोग किया है / दिगम्बरों के मूल षट्खण्डागम आविका उपयोग मैंने नहीं किया / उन शास्त्रोंका दर्शनके साथ अधिक सम्बन्ध नहीं है / उन ग्रन्थों में जैन-कर्मतत्त्वका ही विशेष विवरण है। ' आगमिक दार्शनिक तत्त्व अनेकान्तके विवेचन के पहले वेवसे लेकर उपनिषद पर्यन्त विवार-धारा के तथा बौद्ध त्रिपिटकको विचार-धाराके प्रस्तुतोपयोगी अंशका भी भूमिकारूपसे मैंने आकलन किया है-सो इस दृष्टिसे कि तत्व-विचारमें वैदिक और बौद्ध दोनों धाराओंके आघात-प्रत्याघातसे जैन आगमिक दार्शनिक चिन्तनधाराने कैसा रूप लिया-यह स्पष्ट हो जाय / [1] भगवान् महावीरसे पूर्व की स्थिति (अ) वेदसे उपनिषद् पर्यन्त- विश्व के स्वरूपके विषय में नाना प्रकारके प्रश्न और उन प्रश्नोंका समाधान यह विविध प्रकारसे प्राचीनकाल से होता आया है-इस बातका साक्षी ऋग्वेदसे लेकर उपनिषद् और बावका समस्त दार्शनिक सूत्र और टीका साहित्य है। ऋग्वेरका दीर्थतना ऋषि विश्वके मूल कारण और स्वरूपकी खोजमें लीन होकर प्रश्न करता है कि इस विश्वकी उत्पत्ति कैसे हुई है ? इसे कौन जानता है ? है कोई ऐसा जो जानकारसे पूछ कर इसका पता लगावे ?' वह फिर कहता है कि मैं तो नहीं जानता किन्तु खोज में इधर-उधर विचरता हूँ तो बचनके द्वारा सत्यके दर्शन होते हैं। खोज करते-करते दीर्घतमाने अन्त में कह दिया कि "एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति / " सत् तो एक ही है किन्तु विद्वान् उसका वर्णन कई प्रकारसे करते हैं। अर्थात् एक ही तत्वके विषयमें नाना प्रकारके वचनप्रयोग देखे जाते हैं। १-ऋग्वेद 10. 5, 27, 88, 129 इत्यादि / तैत्तिरीयोपनिषद् 3.1 / श्वेता० 1.1 / . २-ऋग्वेद 1. 164.4 / ३-ऋग्वेद 1. १६४.३७।४-ऋग्वेद 1. 164.46 /