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________________ ( 22 ) .: खेतो में लोए असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीमो आयामविस्वभेनं - असंखेन्जाओ जोयनकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं पन्नता, अस्थि पुण सांते 2 // कालओ गं लोए य कयावि न आसी न कयावि न भवति, न कयावि न भविस्सति, भविसु य भवति य भविस्सह य धुवे णितिए सासते अक्खए मन्चए अवट्टिए णिच्चे, णस्थि पुण से अन्ते 3 / भावओ णं लोए अणंता वण्णपज्जवा गंध० रस० फासपज्जवा अणंता संठाण पज्जवा अणंता गरयलहुयपज्जवा अणंता अगल्यलहुय पज्जवा, नस्थि पुण से अन्ते 4 / से तं खंदगा ! दव्वओ लोए सोते खेतओ लोए सोते. कालतो लोए मणन्ते भावओ लोए अणते / ' -भग० 2. 1. 90 इसका सार यह है कि लोक द्रव्य की अपेक्षा से सान्त है क्योंकि वह संख्या से एक है। किन्तु भाव अर्थात् पर्यायों की अपेक्षा से लोक अनन्त है क्योंकि लोक-द्रव्य के पर्याय अनन्त है।' काल की दृष्टि से लोक अनन्त है अर्थात् शाश्वत है क्योंकि ऐसा कोई काल नहीं जिसमें लोक का अस्तित्व न हो। किन्तु क्षेत्र की दृष्टि से लोक सान्त है क्योंकि सकल क्षेत्र में से कुछ ही में लोक' है अन्यत्र नहीं / इस उद्धरण में मुख्यतः सान्त और अनन्त शब्दों को लेकर अनेकान्तवाद को स्थापना की गई है। भगवान् बुद्धने लोक को सान्तता और अनन्तता. होनों को अव्याकृत कोटि में रखा है / तब भगवान महावीर ने लोक को सान्त और अनन्त अपेक्षाभेद से बताया है / . अब लोक की शाश्वतता-अशाश्वतता के विषय में जहाँ भ० बुद्ध ने अभ्याकृत कहा वहाँ भ. महावीर का अनेकान्तवादी मन्तव्य क्या है उसे उन्हीं के शब्दों में सुनिये:___ "सासए लोए जमाली ! जन्न कयावि णासी जो कयाविण भवति ण कयाकि न भविस्सइ, भुवि च भवई य भविस्सइ य धुवे णितिए सासए अक्खए अव्वए अवट्टिए णिच्चे। 1. लोक का मतलब है पञ्चास्तिकाय। पञ्चास्तिकाय संपूर्ण आकाश क्षेत्र में नहीं किन्तु जैसा ऊपर बताया गया है असंख्यात कोटा-कोटी योजन की परिधि में है।
SR No.004351
Book TitleAgam Yug ka Anekantwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Cultural Research Society
Publication Year
Total Pages36
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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