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________________ ( 20 ) सन्तिता-निरन्तता का प्रश्न, जीव-शरीर के भेदाभेद का प्रश्न और तथागत की मरणोत्तर स्थिति-अस्थिति अर्थात् जीव की नित्यता-अनित्यता का प्रश्न* / ये ही प्रश्न भगवान् बुद्ध के जमाने के महान् प्रश्न थे / और इन्हींके विषय में भ० बद्ध ने एक तरह से अपना मत देते हुये भी वस्तुतः विधायक रूप से कुछ नहीं कहा। यदि वे लोक या 'जीव को नित्य कहते तो उनको उपनिषन्मान्य शाश्वतवाद को स्वीकार करना पड़ता और यदि वे अनित्य पक्ष को स्वीकार करते तब चार्वाक-जैसे भौतिकवादिसम्मत उच्छेदवाद को स्वीकार करना पड़ता। इतना तो स्पष्ट है कि उनको शाश्वतवाद में भी दोष प्रतीत हुआ था और उच्छेदवाद को भी वे अच्छा 'नहीं समझते थे। इतना होते हुए भी अपने नये वाद को कुछ नाम देना उन्होंने पसंद नहीं किया और इतना ही कह कर रह गये कि ये दोनों वाद ठीक नहीं। अतएव ऐसे प्रश्नों को अव्याकृत, स्थापित, प्रतिक्षिप्त बता दिया और कह दिया कि लोक शाश्वत हो या अशाश्वत, जन्म है ही, मरण है ही। मैं तो इन्हीं जन्ममरण के विघात को बताता हूँ। यही मेरा व्याकृत है। और इसी से तुम्हारा भला होने वाला है। शेष लोकादि की शाश्वतता आदि के प्रश्न अव्याकृत हैं, उन प्रश्नों का मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया ऐसा ही समजो' / इतनी चर्चा से स्पष्ट है कि भ० बुद्ध ने अपने मन्तव्य को विधिरूप से न रख कर अशाश्वतानुच्छेदवाद का ही स्वीकार किया है / अर्थात् उपनिषन्मान्य नेति नेति की तरह वस्तुस्वरूप का निषेधारक व्याख्यान करने का प्रयत्न किया है / ऐसा करने का कारण स्पष्ट यही है कि तत्काल में प्रचलित वादों के दोषों की ओर उनकी दृष्टि गईऔर इसीलिये उनमें से किसी वाद का अनुयायी होना उन्होंने पसंद नहीं किया। इस प्रकार उन्हेंोने एक प्रकार से अनेकान्तवाद का रास्तासाफ़ किया। भगवान् महावीर ने तत्तद्वादों के दोष और गुण दोनों की ओर दृष्टि दी। प्रत्येक वाद का गुणदर्शन उस उस वाद के स्थापक ने प्रथम से कराया ही था। उन विरोधी वादों में दोषदर्शन भ० बुद्ध ने किया तब भगवान् महावीर के सामने उन वादों के गुण और दोष दोनों आ गये। दोनों पर समान भाव से दृष्टि देने पर अनेकान्तवाद स्वतः फलित हो जाता है। भगवान महावीर ने तत्कालीन वादों के गुणदोषों की परीक्षा करके जितनी जिस वाद में सच्चाई थी उसे उतनी ही मात्रा * इस प्रश्न को ईश्वर के स्वतन्त्र अस्तित्व या नास्तित्वका प्रश्न भी कहा जा सकता है। 1. मज्झिमनिकाय चूलमालुक्य सुत्त 6 /
SR No.004351
Book TitleAgam Yug ka Anekantwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Cultural Research Society
Publication Year
Total Pages36
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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