________________ लेख और लेखक के विषय में पण्डित श्री मालवणिया जैसे बहुश्रुत वैसे ही स्वतन्त्र चिन्तक भी हैं। उनका आगमों और दर्शनोंका अभ्यास-खास करके जैनदर्शनका अभ्यास-बहुत गहरा और बहुमुखी भी है। वे सिंघी जैन सिरिझ (भारतीय विद्याभवन) में शान्तिसूरिकृत जैन तर्कवार्तिक का सम्पादन कर रहे हैं। उक्त वातिक सिद्धसेन दिवाकरकृत न्यायावतार की गद्यपद्यमय विवृति है। इसका सम्पादन करते हुए श्रीयत मालवणियाने अनेक दार्शनिक मुद्दों पर हिन्दी में विस्तृत टिप्पण लिखे हैं और एक बहुत विस्तृत प्रस्तावना भी लिखी है जो सब थोड़े ही समय में विशिष्ट ग्रन्थरूप से प्रसिद्ध होने वाला है। प्रस्तावना में उन्होंने भगवान् महावीर से लेकर करीब हजार वर्ष तक में चर्चित, चिन्तित, संगृहीत और विकसित ऐसे जैन-दर्शनके प्राणभूत अनेकान्तवाद, सप्तभंगी तथा ज्ञानवादका ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक दृष्टिसे ऊहापोह किया है। प्रस्तुत लेख उस विस्तृत ऊहापोहका एक भाग मात्र है। इसमें मुख्यतया आममकालीन अनेकान्तवादका ही निरूपण है। इसमें जैसे वेद से लेकर उपनिषदों तक का चिन्तन पूर्वभूमिका रूप से आया है वैसे ही समकालीन तथागत बद्धका तत्त्वचिन्तन भी आया है। पूर्वकालीन और समकालीन तत्त्वचिन्तन के साथ तुलना करके भगवान्के दृष्टिकोणका विशेषत्व लेखकने हस्तामलकवत् दर्शाया है। जहाँ तक हम जानते हैं वहाँ तक किसी विदेशी या देशी विद्वान् ने अभी तक ऐसा कोई व्यापक प्रयत्न नहीं किया है। यह लेख जैसा जैन-दर्शनके उच्च अभ्यासियोंके लिए उपयोगी है वैसा ही दर्शनमात्रके उच्च अभ्यासियोंके लिए भी विचारप्रेरक है। जिज्ञासुओंको जल्दी तथा सरलतासे सुलभ हो एवं पाठ्यक्रम में उपयोगी हो सके इस दृष्टि से हम निबंधको पत्रिकारूप से प्रसिद्ध कर रहे हैं। यदि तत्त्वजिज्ञासु धीरज से इसको पढ़ेंगे तो वे तत्त्वचिन्तनकी सच्ची दिशा को समझ सकेंगे। शान्तिलाल व० शेठ मंत्री, श्री जैन संस्कृति संशोधन मण्डल-बनारस