________________ 106 शत्रुञ्जय-कल्पवृत्ती उक्त च-"माघस्य पूर्णिमास्यां तु जननी वृषभप्रभोः / मुक्तिं ययावतो बाहु-बलिनाऽऽयाप्तसनुना // 1 // " तदिने ये नरा नार्यः पूजयन्त्यादियोगिनीम् / ते सर्वे सर्वसाम्राज्यं सुभगाः स्युमुमुक्षवः // 6 // नार्योऽद्य विधवाः पुत्र-वत्यःसौभाग्यभाजनम् / चक्रि-शक्रगृहे भूत्वा क्रमान्मुक्ति वजन्त्यपि // 10 // बाहुबल्यादयः सर्वे सोदरा यत्र निवृताः / तत्र सार्वगृहं बाहुबल्या भरतो व्यधात् // 11 // तीर्थेऽत्र वह्निसंस्कारः कार्यो नृणां कदापि न / यतस्ततीर्थलोपः स्याद् जिनाज्ञायाश्च खण्डनम् // 12 // मुख्यशृङ्गादधो मुक्त्वा सर्वतोऽपि द्वियोजनीम् / गिरौ सार्वाभिधे कार्या देहिनामग्निसंस्कृतिः // 13 // तत्र तेषां च कर्त्तव्या मृतिः शैलमयी वरा / अन्येषामपि तत् कृत्य-निर्देशाय महीभुजा // 14 // जीवहिंसां विधायापि खगा वैतात्यवासिनः / तत्पातकच्छिदे तीर्थ निसेवन्ते निरन्तरम् // 15 // तदानीं तत्र वज्रश्री-विद्याधरशिरोमणिः / लक्षविद्याधराऽऽसेव्यो नन्तु श्री वृषभं जिनम् // 16 // स्नात्रपूजा-ध्वजारोप-कृत्यानि जिनसमनि / विधाय वन्दते सर्वान् प्रत्येकं जिनसद्मसु // 17 // ततो विद्याधरः शत्रु-ञ्जयमाहात्म्यमादरात् / शुश्रावेति गुरूपान्ते भूरिजनसमन्वितः // 18' / .. यः शत्रुञ्जये तीर्थे कारयेजिनमन्दिरम् / तस्य स्वर्गापवर्गश्री-दुलभा नेव जायते // 16 // यश्च दानं सुभावेन दत्तेऽत्र सिद्धपर्वते / स एव लभते स्वर्गा-पवर्गश्रियमञ्जसा // 20 // यतः--"शत्रुञ्जये जिने दृष्टे दुर्गतिद्वितयं क्षिपेत् / सागरोपमसहस्र तु पूजास्नात्रविधानतः" // 1 // श्रुत्वेति श्रीजिनागारं स्फाटिकैरश्मभिर्वरैः / कारयित्वाऽऽदिदेवस्य विम्बमस्थापयत् स च // 21 // तस्य सार्वगृहस्याऽऽह्वा वज्रश्रीरिति मानवैः / व्यश्राणि विदधुर्विद्या-धरायाः पूजनं ततः // 22 // क्रमात्तत्र स विद्याभृद् लात्वा चारित्रसम्पदम् / सर्वकर्मक्षयात् सिद्धो लक्षत्रययतिश्रितः // 23 // * इति बाहुबलिकारितश्रीमरुदेवीभवनसम्बन्धः / / अथ नमिविनमिमुक्तिगमनसम्बन्धः // णमि-विणमीखयरिंदा सह मुणि-कोडीहिं दोहिं संजाया। जहिं सिद्धसेहरा सइ जयउ तयं पुण्डरी तित्थं // 15 // नमि-विनमिखचरेन्द्रौ द्विकोटिमित-साधुभ्यां सह-साद्ध जहिं-यत्र 'सिद्धशेखराः' सिद्धमुकुटाः 'सञ्जाताः' बभूवुः जयतात् पुण्डरीका तोयें। वृषभस्य सुतौ कच्छ-महाकच्छौ मनोहरौ / अभूतां सबलौ स्वामि-भक्तौ रुचिरमानसौ // 1 // कच्छस्याऽभूदपि (न्नमि) पुत्रो विनीतो विशदाशयः / महाकच्छस्य पुत्रोऽभू-द्विनमिहितकृत् पितुः // 2 // प्रभोः कच्छमहाकच्छौ स्वस्वमूनुसमन्वितौ / सेवां वितनुतेऽभीक्ष्णं भक्तिभावितमानसौ // 3 // दानं सांवत्सरं दत्त्वा याचकेभ्यो मुखोदितम् / वृषभाह्न व्यधाद्वर्ष वृषभस्तीर्थकृत्तदा- // 4 // यतः- “एगा हिरण्णकोडी अट्ठव य अणूणगा सयसहस्सा / सूरोदयमाइयं दिजइ जा पायरासारो // 1 //