________________ तत्त्वसार आत्मा कैसा है ? इस प्रश्न के उत्तरमें बताया गया है कि निश्चय नयसे आत्मा अनन्त ज्ञान-दर्शनादि गुणोंसे युक्त है, असंख्यात प्रदेशी है, अमूर्त है, वर्तमानमें गृहीत शरीर-प्रमाण है, निरंजन है, क्रोधादिसे रहित है, शल्य और लेश्याओंसे रहित है, रूप-रसादिसे रहित है, कर्मोके बन्ध, उदयादि स्थानोंसे रहित है, मार्गणा, जीवसमास और गुणस्थानोंसे भी रहित है। (गाथा 17-21) किन्तु व्यवहार नयसे कर्म-नोकर्मादि जनित उक्त विभावोंसे युक्त भी है / (गाथा 22). .. ____जीव और कर्मका संयोग दूध-पानीके मिलापके समान है। दोनों एकमेक होकर भी अपनेअपने स्वभावसे युक्त रहते हैं। उन्हें जैसे विधि-विशेषसे भिन्न-भिन्न कर दिया जाता है उसी प्रकार ध्यानके योगसे जीव और कर्मके संयोगको भी ज्ञानी पुरुष भिन्न-भिन्न कर सकता है। (गाथा 23-24) अतः उन्हें भिन्न-भिन्न करके सिद्धके समान अपने शुद्ध परमब्रह्मस्वभावरूप आत्माको ग्रहण करना चाहिए / (गाथा 25) उस शुद्ध परम ब्रह्मका क्या स्वरूप है ? इस प्रश्नका उत्तर देते हुए कहा गया है कि कर्ममलसे रहित, ज्ञानमयी सिद्ध परमात्मा जैसा सिद्धालयमें निवास करता है, वैसा ही इस देहमें स्थित परम ब्रह्मरूप आत्माको जानना चाहिए। वह कर्म-नोकर्म से रहित है, केवलज्ञानादि अनन्त गुणोंसे समृद्ध है, नित्य है, एक है, निरालम्ब है, असंख्यात प्रदेशी और अमूर्त है (गाथा 26-28). उक्त स्वरूपवाले परम ब्रह्मकी प्राप्ति मनके संकल्प रुक जानेपर और इन्द्रियोंके विषयव्यापार बन्द हो जानेपर ध्यानके द्वारा होती है। (गाथा 29) मनका संचार ज्यों-ज्यों रुकता है और इन्द्रियोंके विषय ज्यों-ज्यों शान्त होते हैं, त्यों-त्यों आत्माका परम ब्रह्मरूप स्वभाव प्रकट होता जाता है। जैसे सूर्य ज्यों-ज्यों मेघ-पटलसे रहित होता हुआ उत्तरोत्तर प्रकाशमान होता जाता है और मेघ-पटलसे सर्वथा रहित होने पर पूर्ण रूपसे प्रकाशमान हो जाता है। इसी प्रकार कर्म-पटलके दूर होनेपर आत्माका शुद्ध स्वभाव भी पूर्णरूपसे प्रकट हो जाता है। इसके लिए मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिका निर्विकार होना परम आवश्यक है / (गाथा 30-31) मन, वचन, कायकी प्रवत्ति रुकनेपर नवीन कर्मोंका आस्रव भी रुक जाता है और पूर्व-बद्ध कर्मोंकी निर्जरा भी होती है। (गाथा 32) / जबतक मन पर-द्रव्योंमें आसक्त रहता है, तबतक उग्र तपको करता हुआ भव्य पुरुष भी मोक्षको नहीं पाता है। किन्तु पर-द्रव्योंसे आसक्ति छोड़नेपर एवं निज स्वभावमें स्थिर होनेपर मोक्षकी प्राप्ति अल्प समयमें ही हो जाती है। (गाथा 33) इसके विपरीत जबतक देहादि परद्रव्यसे ममत्व करता है, तबतक वह पर समय-रत है और विविध प्रकारके कर्मोंसे बँधता रहता है / (गाथा 34) / ज्ञानी और अज्ञानीकी व्याख्या करते हुए बताया गया है कि जो पुरुष इन्द्रियोंके वश होकर अनिष्ट वस्तुसे रुष्ट होता है और इष्ट वस्तुसे तुष्ट होता है, वह अज्ञानी है / जो न अनिष्ट वस्तुसे रुष्ट हो और न इष्ट वस्तुसे तुष्ट हो वह ज्ञानी है। (गाथा 35) ज्ञानी पुरुष विचार करता है कि जो चेतना-रहित है वह तो दिखाई देता है और जो चेतना-सहित है वह दिखाई नहीं देता। फिर में किससे रुष्ट होऊँ, या किससे तुष्ट होऊँ ? अतएव मध्यस्थ ही रहना श्रेष्ठ है। (गाथा 36) योगी पुरुषको त्रिभुवनवर्ती सब जोव अपने समान ही ज्ञानमय और अनन्त गुणवाले दिखाई देते हैं, इसलिए वह न किसीसे रुष्ट होता है और न तुष्ट होता है। किन्तु मध्यस्थं ही रहता है।