________________ श्लो० 778-837 ] वैराग्यरतिः। . 221 ततः कमलिनी प्राह, प्रतिभातमिदं मम / चारूदितं त्वया राजन् !, युक्तमेतत् किलावयोः // 808 // ततोऽनुज्ञाय पुत्रं तं, तो देवीक्षितिवासवौ / ग्रहीतुमुद्यतो दीक्षामभूतां दृढनिश्चयौ // 809 / / अथ भूपसूता सा तैरनुसुन्दरभाषितैः / द्राविता प्रेक्ष्य चोद्धान्ता, पुण्डरिकादिचेष्टितम् // 810 // प्रत्यब्रवीन्महाभद्रां, साऽनुतापा कृताञ्जलिः / किं कृतं प्राग् मया पापं, येन जाताऽहमीदृशी // 811 // धन्यो राजसुतोऽयं यो, बुद्धो भवकथामिमाम् / श्रुत्वा पापा न बुद्धयेहं बोद्भुकामाऽपि किं ततः // 812 // त्रयाणामपि धन्यानां, प्रत्ययो ज्ञानपूर्वकः / एषां स्फुटः प्रादुरभूदनुसुन्दरवाक्यतः // 813 // अहं पुनर्न जानेऽस्मिन् , मामुद्दिश्य वदत्यपि / शून्या ग्रामेयकाकारा, किं करोम्यन्धसन्निभा // 814 // महाभागे ! स्वयं ज्ञात्वा, पृष्ट्वा यद्वा सदागमम् / तदिदं कस्य पापस्य, चेष्टितं मेऽखिलं वद // 815 // ततस्तां तादृशीं दृष्ट्वा, बाष्पपिच्छललोचनाम् / कृपाः क्षितिभृत्पुत्रीमब्रवीदनुसुन्दरः / / 816 // मुग्धे ! जिज्ञासितं भावमहमेव ब्रवीमि ते / भगवत्या श्रमितया, सृतमत्र प्रयोजने // 817 // गुणधारणराजेन, मया मदनमञ्जरी / साई प्रवजिताऽभूत्वं, तदाऽभ्यस्तः क्रियाभरः / / 818 // तप्तं त्वया तपस्तं वं, धृतेयं किन्तु दुर्मतिः / इष्टं यदेकं तत् कार्य, किं प्रपञ्चेन भूयसा // 819 // ततः स्वाध्यायपाठस्ते, हृदये न सुखायितः / रुचिता वाचना नोचैः, प्रच्छना नानुशीलिता // 820 // .. न परावर्तनाऽभीष्टा, नानुप्रेक्षाऽप्यनुष्ठिता / न धर्मदेशना दत्ता, प्रचला, परिशीलिता // 821 // स्वाध्यायोद्वेगतो मौनव्रतमेवाढतं परम् / न तत्राभिनिवेशोऽभून कृता प्रत्यनीकता // 822 // . नान्तरायः कृतो ज्ञाने, न तद्घातोऽपि निर्मितः / तत्प्रद्वेषो न विहितो, न तस्याकारि निह्नवः / / 823 // केवलं ज्ञानशैथिल्यात् , प्रमादाद् दुधिया तया / कृता लघीयसी सेयं, श्रुतस्याऽऽशातना त्वया // 824 // यत्प्रभावादसयेयं, कालं भ्रान्ता भवोदधौ / जाता चैवंविधाऽसि त्वं, जडधीरविशेषवित् // 825 // भावाः किं चानुवर्तन्ते, प्राग्भवाभ्यासतोऽङ्गिनाम् / पुरुषद्वेषिणी जाता, यत् त्वं मदनमञ्जरी // 826 // तथेहापि तथाभावाद् , ब्रह्मचर्यैकनिष्ठिता / उच्चैराकारिताऽसि त्वं, ब्राह्मणीति सखीजनैः // 827 // तत् किं मिलति ते वृत्तं, प्रोचे सुललिता ततः / आर्य! किं न मिलत्यत्र, भवचनविस्तरे // 828 // केवलं मन्दभाग्याऽहं, तिष्ठामि तमसा वृता / वितन्यमानेऽप्यालोके, त्वद्वचोरविरश्मिभिः // 829 // इत्युक्त्वा कर्मपङ्कस्य, क्षालनायैव बद्धधीः / प्रवृत्ता वर्षितुं बाला, विस्तारि नयनोदकम् // 830 // ततोऽनुसुन्दरः प्रोचे, मुञ्च खेदं नृपाङ्गजे / क्षीणप्रायान्तरायाऽसि, कुरु भक्तिं सदागमे / / 831 // तत्त्वज्ञानमदो भक्तिमूलमेव हि देहिनाम् / धन्याऽसि त्वं समायाता, या सदागमसन्निधौ // 832 // ततः सुललिताऽमीभिर्वचोभिः पाविताशया / सदागमोऽयमित्युच्चैः, पतिताऽऽचार्यपादयोः / / 833 // जगाद च जगन्नाथ ! त्वमेव शरणं मम / अज्ञानपङ्कमनायास्त्वमेवोद्धारकारकः // 834 // सदागमस्य माहात्म्यात् , ततः संवेगगौरवात् / चेतःप्रह्वतया चाऽस्या, बहु कर्म क्षयं गतम् // 835 // जाता जातिस्मृतिर्दृष्टो, वृत्तान्तः प्राग्भवाश्रयः / पपातोत्थाय हृष्टाऽथ, साऽनुसुन्दरपादयोः / / 836 // . जगाद च प्रसादात् ते, भगवत्सन्निधेस्तथा / जातिस्मृतिर्ममोत्पन्ना, निर्विण्णाऽस्मि भवोदधेः / / 837 // .