________________ प्रलो० 313-369 ] वैराग्यरतिः। 205 चिन्तामात्रेण शमितं खेचराणां च विड्वरम् / बन्धुभूता मिथस्ते च प्रपन्ना मम भृत्यताम् // 341 // ताता-म्बादिमनस्तोषः कृतस्तैः खेचरैः सह / प्राप्तो महोत्सवैगेंहं गीतं सर्वैर्यशो मम // 342 // तदिनं मे महानन्दात् प्रतिभातं सुधामयम् / वर्धमाने च मदनमञ्जरीस्नेहपादपे // 343 // जाते कन्दमुनीन्द्रस्य दर्शने मित्रतां गते / साते सदागमे श्राद्धधर्मे सम्यक्त्वभाजि च // 344 // राज्ये परिणतेऽत्यन्तं यः सुखातिशयोऽजनि / जाता तेन ममावज्ञा स्वर्गलोकसुखेष्वपि // 345 // भगवत्यधुना दृष्टे तथा भक्त्याभिवन्दिते / नष्टे च चित्तसन्देहे यत् सुखं तद् वचोऽतिगम् // 346 // तत् कथं सुखलेशो मे भगवद्भिनिवेदितः / अस्मिन् सुखलवे पूर्ण सुखं किं नु भविष्यति ? // 347 // सूरिराह महाराज ! यदा त्वं परिणेष्यसि / दश कन्यास्तदा पूर्ण ज्ञास्यसेऽ(स्य)नुभवेन तत् // 348 // तत्प्रेमपरिणामोत्थनमशर्मव्यपेक्षया / तवायमधुना शर्मलेश एवावसीयते // 349 // ततो मयोक्तं भगवन् !. कान्तां मदनमञ्जरीम् / त्यक्त्वैनामपि शिष्यस्ते भविष्यामीति मेऽस्ति धीः // 350 // परिणेष्ये भवत्प्रोक्तास्तत्कथं कन्यका दश ? / भगवानाह तव ता विना प्रबजितेन किम् ? // 351 // वयं प्रवाजयिष्यामो भवन्तं ताभिरन्वितम् / तादृश्यो हि कुटुम्बिन्यस्त्यागार्हा न कदाचन // 352 // तच्छृत्वाऽहं गुरुब्रूते किमेतदिति विस्मितः / ततः कन्दमुनिः प्राह का नु कन्या भदन्त ! ताः? // 353 // भगवानाह नगरं चेतःसौन्दर्यमस्ति यत् / राजा शुभाशयस्तत्र विद्येते द्वे च तत्प्रिये // 354 // स्थिरता-शान्तते नाम कन्ये क्षान्ति-दये तयोः / मनोनैर्मल्यसंज्ञानं तथाऽस्ति नगरं परम् // 355 // राजा हिताशयस्तत्र नम्रता-पूर्णताभिधे / देव्यौ तस्य तैयो स्तो मृदुता-सत्यते सुते // 356 / / तथाऽन्यदस्ति नगरं स्वान्तवैशद्यसंज्ञकम् / राजा रुच्याशयस्तत्र तद्भार्ये शुद्धि-शिष्टते // 357 // ऋजुता-ऽचौरते नाम द्वे कन्ये तत्तनूद्भवे / परं भावप्रसादाख्यं पुरमस्ति गुणकभूः // 358 // राजा शुद्धाशयस्तत्र तस्यात्मरतिरुच्यते / देव्यौ कन्ये तयोर्धन्ये द्वे ब्रह्मरति-मुक्तते // 359 / / अन्या च मानसी सम्यग्दर्शनेन विनिर्मिता / स्ववीर्येणाऽस्ति विद्याख्या कन्या सन्यायवासभूः // 360 // चारित्रधर्मराजस्य देव्याश्च विरतेः परा / अस्ति कुक्षिसमुद्भूता कन्या नाम्ना निरीहता // 361 // वासाभिजननामानि तदेवं कीर्तितानि ते / दशानामपि कन्यानामार्यकन्दमुने ! स्फुटम् // 362 // ततः कन्दमुनिः प्राह लप्स्यते ताः कथं नृपः ? / बभाषे भगवान् कर्मपरिणामानुकूल्यतः // 363 // अनेन योग्यता कार्या गुणाभ्यासेन केवलम् / यथा तस्य पितॄणां च तासां स्यादत्र रक्तता // 364 // प्राह कन्दमुनि था ! युष्मदाज्ञावशंवदः / अयमस्ति वदन्त्वस्य तत्तल्लाभोचितान् गुणान् // 365 // बभाषे भगवानार्य ? क्षान्ति समभिकाश्ता / मैत्री समस्तसत्त्वेषु भावनीया प्रयत्नतः // 366 // पराभवः परकृतः सोढव्यस्तत्प्रसङ्गतः / अनुमोद्या परप्रीतिश्चिन्त्यः स्वानुग्रहस्ततः // 367 / / निन्द्यो हेतुतया चात्मा परिभावकदुर्गतेः / हितबुद्ध्या प्रपत्तव्या स्वस्य न्यकारकारिणः // 368 // संसारासारदर्शित्वप्रवृद्धगुरुभावतः / विधेयं सर्वथा स्वान्तं निष्प्रकम्पमनाविलम् // 369 // 1. कन्यकास्ता भदन्त काः // 2. तयोः कन्ये मृदुता-सत्यताभिधे // 3. मनोहरम् // 4. तल्लाभौपयिकान् //