________________ 364 ] कियदस्मादृशैस्तुच्छबुद्धिभिर्मण्यते भुवि // 1517 // यो न पल्योपमायुष्को यो न जिह्वासहस्रकः / स कथं वर्णयत्येतत्पुण्यमाहात्म्यमर्हताम् // 1518 // विजानाति जिनेन्द्राणां को निःशेषगुणोत्करम् / त एव हि विजानन्ति दिव्यज्ञानेन तं पुनः // 1519 // इत्यद्भतैकचरितः श्रीशान्तिजिनपुङ्गवः / विजहार धरापीठे लोकानां हितकाम्यया // 1520 // चक्रायुधगणधरः सह शान्तिजिनेन्दुना / विचचार प्रकुर्वाणः शुश्रूषां तस्य भृतले // 1521 // जानन्नपि विभोः पार्श्वे चक्रे पृच्छा अनेकशः / प्रतिबोधकृते भव्यजीवानों भगवानसौ // 1522 // .. एवं शान्तिजिनेन्द्रेण पृथ्व्यां विहरता सता / सद्विषष्टिसहस्राणि दीक्षिता मुनिपुङ्गवाः // 1523 // एकषष्टिसहस्राणि षट्शतैरधिकानि च / प्रभुणा दीक्षितास्तेन श्रमण्यः शीलशोभिताः // 1524 // सत्सम्यक्त्वगुणभृतां सुश्राव्रतधारिणाम् / जीवाजीवादिसत्तत्ववेदिनां पापभेदिनाम् // 1525 // धर्मादक्षोभणीयानां रक्षोयक्षामरादिभिः / अस्थिमज्जानुरागेण रक्तानां जिनशासने // 1526 // समुच्छ्रितफलहकापिहितद्वारवेश्मनाम् / नित्यं त्यक्तप्रवेशानां परौकोऽन्तःपुरादिषु // 1527 // जिनवाक्यमेतदर्थः परमार्थस्तथैव च / / अनर्थ शेषमित्यग्रे सर्वलोकस्य शंसताम् // 1528 // चतुर्दश्यष्टमीराकामावास्यासु च पौषधम् / कुर्वतामचनाघेश्च प्रतिलाभयतां मुनीन् // 1529 // भीशान्तिजिननायेन बोषितानामगारिणाम् / भवतिसहसापकी बाता बायो बरां // 1530 //