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________________ निवेदन __माणिक्यचन्द्र जैन ग्रन्थमाला का यह 38 वाँ ग्रन्थ पाठकों के सामने उपस्थित किया जा रहा है। इस माला को प्रारंभ हुए लगभग 22 वर्ष हो चुके / शुरू से ही मैं इसकी यथाशक्य सेवा कर रहा हूँ। इसके लिए समाज से अब तक लगभग 1516 हजार रुपये मिले होंगे जो स्टॉक के रूप में अब भी सुरक्षित हैं; मूलधन में कोई घाटा नहीं है; यदि स्टॉक के मूल्य को मूलधन समझा जाय तो। जिस समय ग्रन्थ माला का आरंभ हुआ उस समय ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त करना बहुत कठिन था और उससे भी अधिक कठिन था सम्पादन संशोधन करने वाले योग्य विद्वानों को पा लेना। आधुनिक सम्पादन पद्धति के जानकार परिश्रमी और बहुश्रुत विद्वानों का तो एक तरह से अभाव ही था। इस कारण अब तक प्रकाशन का कार्य बहुत मन्द गति से हुआ और जो कुछ हुआ उससे केवल इतना ही सन्तोष किया जा सकता है कि किसी तरह इतने ग्रन्थ प्रकाश में आ गये, एक समय जो दुर्लभ थे वे सुलभ हो गये, भले ही उनके संस्करण विशेष उत्तम और उपयोगी न हों। परन्तु अब हस्तलिखित प्रतियाँ प्रयत्न करने से उपलब्ध होने लगी हैं और सुहृद्वर प्रो० हीरालाल जी जैन, प्रो० ए० एन० उपाध्ये, डॉ० पी० एल० वैद्य, पं० जगदीश... चन्द्र जी शास्त्री, पं० महेन्द्रकुमार शास्त्री, पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, आदि ग्रन्थ-सम्पा दन-कार्यदक्ष विद्वानों का भी सहयोग मिलने लगा है, जिससे ग्रन्थ प्रकाशन कार्य खूब तेजी से किया जा सकता है, करने का उत्साह भी है / परन्तु इधर बीच में ही आर्थिक प्रश्न आकर खड़ा हो गया है, “द्राक्षाप्रपाकसमये मुखपाको भवति" वाली बात हो गई है, ग्रन्थ माला का फण्ड समाप्तप्राय है और जो कुछ रुपया शेष है, उससे मुश्किल से न्यायकुमुदचन्द्र का द्वितीय खण्ड ही प्रकाशित हो सकेगा / महापुराण के उत्तर खण्ड ( उत्तर पुराण ) का काम तो बन्द ही कर देना पड़ा है। यद्यपि मागधी और अपभ्रंश भाषाओं के दिग्गज विद्वान् डॉ० पी० एल० वैद्य महोदय ने अतिशय परिश्रम से उसकी प्रेस-कापी तैयार कर रक्खी है / __ पिछले 22 वर्षों में मैंने कभी यह महसूस ही नहीं किया था कि कभी रुपयों के अभाव में प्रकाशन-कार्य को रोक देना पड़ेगा। क्योंकि-वर्ष में जितना रुपया खर्च होता था, लगभग उतनी बिक्री हो जाती थी और सौ दो सौ रुपया ऊपर से सहायता भी मिल जाती थी। परन्तु इधर हरिवंशपुराण, पद्मचरित, महापुराण, न्यायकुमुदचन्द्र आदि बड़े-बड़े ग्रन्थों में अनुमान से अधिक रुपया लग गया, बिक्री कुछ बढ़ी नहीं और सहायता भी इस समय जितनी मिलनी चाहिए थी उतनी नहीं मिली। ऐसी दशा में तब तक के लिए कार्य स्थगित कर देने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं है जब तक कि ग्रन्थों की बिक्री से अथवा धनियों की सहायता से काम चलाऊ धन एकत्र न हो जाय।
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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