________________ 14 न्यायकुमुदचन्द्र हो जाता है / इस ग्रन्थ की एक विशेषता और भी है। इसमें जैनदर्शन के प्राण अनेकान्तवाद को बहुत व्यापक रूप दिया गया है। जितने विवाद उत्पन्न किये गये हैं उन सबका समाधान प्रायः अनेकान्तरूपी तुला के आधार पर ही किया गया है। खोजने पर ऐसे विरले ही सूत्र मिलेंगे जिनमें 'अनेकान्तात्' वार्तिक न हो। यों तो वार्तिककार के दार्शनिक होने के कारण प्रत्येक अध्याय और प्रत्येक सूत्र की व्याख्यानशैली में दार्शनिक दृष्टिकोण के दर्शन होते ही हैं किन्तु प्रथम और पञ्चम अध्याय का विषय दार्शनिक क्षेत्र से सम्बद्ध होने के कारण उनमें दर्शनशास्त्र के प्रेमियों के लिये पर्याप्त सामग्री भरी हुई है / शेष अध्यायों का विषय आगमिक है और जैनसिद्धान्तों के जिज्ञासु इस एक ग्रन्थ के आलोडन से ही बहुत से शास्त्रों का रहस्य जान सकते हैं / तथा उन्हें इसमें कुछ ऐसी बातें भी मिलेंगी जो उपलब्धसाहित्य में अन्यत्र नहीं मिलतीं। __ प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या में सांख्य वैशेषिक और बौद्धों के मोक्ष का विवेचन, छठे सूत्र की व्याख्या में सप्तभंगी का निरूपण, ९वें से 13 वें सूत्र तक ज्ञानविषयक विविधविषयों की आलोचना, और अन्तिमसूत्र की व्याख्या में ऋजुसूत्र का विषयनिरूपण, द्वितीय अध्यायके 8 वें सूत्र की व्याख्या में आत्मनिषेधक अनमानों का निराकरण. चतर्थ अध्यायके अन्त में अनेकान्तवाद के स्थापनपूर्वक नयसप्तभंगी और प्रमाणसप्तभंगी का विवेचन, पांचवें अध्याय के 2 रे सूत्रकी व्याख्या में वैशेषिक के 'द्रव्यत्वयोगात् द्रव्यम्' इस सिद्धान्त की आलोचना, 7 3 की व्याख्या में वैशेषिकदर्शन के 'आत्मसंयोगप्रयत्नाभ्यां हस्ते कर्म' (5-1-1 ) की आलोचना, 8 वें की व्याख्या में अमूर्तिक द्रव्यों का सप्रदेशत्वसाधन, 19 वें की व्याख्या में मन के सम्बन्ध में वैशेषिक बौद्ध और सांख्य के विविध दृष्टिकोणों की आलोचना, 22 वें की व्याख्या में अपरिणामवादियों के द्वारा वस्तु के परिणामित्व पर आपादित दोषों का निराकरण, व्यासभाष्य के परिणाम के लक्षण की आलोचना तथा क्रिया को ही काल माननेवालों का खण्डन, 24 वें की व्याख्या में स्फोटवादका निराकरण, आदि विषय दर्शनशास्त्र के प्रेमियों के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। तथा जैनसिद्धान्त के प्रेमियों के लिये 1-7 वें सूत्र की व्याख्या में अजीवादितत्त्वों के साथ निर्देश, स्वामित्व आदि की योजना, 1-20 की ध्याख्या में द्वादशाङ्ग के विषयों का संक्षिप्त परिचय, 1-21, 22 की व्याख्या में अवधिज्ञान का विषय, 2-7 की व्याख्या में सान्निपातिकभावों की चर्चा, 2-49 की व्याख्या में शरीरों का तुलनात्मक विवेचन, तीसरे अध्याय की व्याख्या में अधोलोक और मध्यलोक का विस्तृत वर्णन, 4-19 की व्याख्या में स्वर्गलोक का पूरा विवेचन, पांचवें अध्याय की व्याख्या में जैनों के षड्द्रव्यवाद का निरूपण, छठे अध्याय की व्याख्या में विभिन्न कामों के करने से विभिन्न कर्मों के आस्रव का प्रतिपादन, सातवें अध्याय की व्याख्या में जैनगृहस्थ का आचार, आठवें में जैनों का कर्मसिद्धान्त, नवें में जैनमुनि का आचार और ध्यान का स्वरूप तथा दसवें में मोक्ष का विवेचन अवलोकनीय है। - अन्यमतों की विवेचना में जिन ग्रन्थों से उद्धरण आदि लिये गये हैं उनमें पतञ्जलि का महाभाष्य, वैशेषिकसूत्र, न्यायसूत्र, व्यासभाष्य, वसुबन्धु का अभिधर्मकोश, दिङ्नाग का प्रमाणसमुच्चय, भर्तृहरि का वाक्यपदीय और बौद्धों के शालिस्तम्बसूत्र का नाम उल्लेखनीय है / जैनाचार्यो में स्वामी समन्तभद्र के युक्तचनुशासन और सिद्धसेन की द्वात्रिंशतिका से एक एक पद्य उद्धृत किया है। श्वेताम्बरसम्मत सूत्रपाठ का जगह जगह निराकरण किया है।