________________ 32 न्यायकुमुदचन्द्र बीसवीं शताब्दी के व्यक्तियों को धार्मिक द्वेष के रंग में रंगा हुआ जान पड़ता है / यद्यपि धर्मोन्माद सब कुछ करा सकता है और राजनैतिक इतिहास की तरह कुछ धर्मों का इतिहास भी रक्तपात और नृशंस हत्याओं से रञ्जित है। तथा दक्षिण में सुन्दरपाण्ड्य नाम के राजा ने जैनधर्म को छोड़कर शवधर्म स्वीकार करने के बाद 8000 जैनों को शूली पर चढा कर मार डाला था। फिर भी ऐतिहासिक प्रमाण के अभाव में उसे सत्य नहीं माना जा सकता। और यदि स्वीकार भी कर लिया जाये तो अकलङ्क के एक छोटे भाई निकलंक की समस्या आड़े आ जाती है / निकलङ्क ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं है। . किसी भी शिलालेख या ग्रन्थ में निकलंक नाम के व्यक्ति का उल्लेख नहीं पाया जाता। दूसरों का तो कहना ही क्या, स्वयं अकलङ्क तक उसके सम्बन्ध में मूक हैं। जरा सोचिये तो सही, छोटा भाई बड़े भाई के प्राण बचाने के लिये सिर कटवादे और इस प्रकार जीवन के महान् उद्देश्य जिनशासन के प्रचार और प्रसार में सहायक हो और बड़ा भाई उसके इस महान त्याग की स्मृति में उसका नाम तक भी न ले, क्या यह संभव है ? हम हैरान हैं कि कथाकार ने किस आधार पर अकलङ्क के साथ एक निकलङ्क की कल्पना कर डाली। दिगम्बर कथाकोशों के अकलङ्क की तरह श्वेताम्बर कथासाहित्य में हंस परमहंस की कथा वर्णित है। पहले में कम से कम इतनी तो ऐतिहासिकता है कि उसका मुख्य पात्र एक ऐति 1 यह कथा चन्द्रप्रभसूरि के प्रभावक चरित में वर्णित है। यह ग्रन्थ वि० सं० 1334 का बना हुआ है। श्री राजशेखर सूरि का बनाया हुआ एक चतुर्विशतिप्रबन्ध नामक संस्कृत ग्रन्थ भो है। वह वि० सं० 1405 का बनाया हुआ है। उसमें भी हंस परमहंस की कथा लिखी हुई है। उसका सार यह हैहरिभद्रसूरि हंस परमहंस नामक अपने भानेजों को पढ़ाते थे। पण्डित होने पर, वे गुरु के मना करने पर भी बौद्धों से पढ़ने के लिये चले गये। एक वृद्धा के घर ठहरे और बौद्धवेश धारण करके पढ़ने लगे। वे कपलिका पर रहस्य लिख लेते थे। उनके प्रतिलेखन आदि क्रियाओं से गुरु ने उन्हें श्वेताम्बर समझा। दूसरे दिन सीढ़ियों पर खरिया मिट्टी से जिनबिम्ब की आकृति बना दी गई। हंस परमहंस ने उस पर यज्ञोपवीत का चिन्ह बना दिया, और इस प्रकार उसे बुद्धमूर्ति मानकर उलंघ गये और गुरु के पास पहुँचे। गुरु के मुख का भाव बदला हुआ देखकर, और वह सब प्रपञ्च गुरु का ही रचा हुआ जानकर, पेट की पीड़ा का बहाना करके वे अपने निवासस्थान को चले गये और कई दिनों तक पढ़ने नहीं आये। बौद्धगुरु ने राजा से शिकायत की और कपलिका मगाने के लिये आग्रह किया। सेना भेजी गई किन्तु हंस परमहंस ने उसे मार भगाया। पुनः बहुत सी सेना भेजी गई। तब एक भाई ने सेना से दृष्टि युद्ध किया और दूसरा परमहंस कपलिका लेकर भाग गया। हंस मारा गया और उसका सिर राजा के आगे उपस्थित किया गया। राजा ने गुरु को दिखाया। गुरु ने कपलिका लाने की आज्ञा-दी। सैनिक पुनः गये और रात्रि में चित्रकूट नगर के द्वार पर सोते हुए परमहंस का सिर काटकर ले गये। हरिभद्रसूरि ने सुबह को उठकर अपने प्रिय शिष्य का रुंड देखा, बड़े क्रोधित हुए। तप्त तेल की कढ़ाई में 1440 बौद्धों को होम देने का विचार किया। गुरु ने वृत्तान्त जानकर साधुओं के हाथ गाथाएँ भेजी" आदि। इस कथानक में शास्त्रार्थ तथा धोबीवाली घटना नहीं आई है। मुनि पुण्यविजयजी से ज्ञात हुआ है कि प्रभावकचरित से पहले के किसी ग्रन्थ में हंस परमहंस की कथा नहीं मिलती। भद्रेश्वरसूरि का बनाया हुआ प्राकृतभाषा का एक कथावली नामक ग्रन्थ है। मुनि जिनविजयजी इसको 12 वीं शताब्दी की रचना अनुमान करते हैं। इसमें भी सिद्धसेन दिवाकर के बाद हरिभद्रसूरि का एक कथानक दिया है। मुनि पुण्यविजयजी ने कृपा करके इस कथा की प्रेसकापी हमारे देखने के लिये भेज दी थी। कापी में स्थान स्थान पर पाठ छूटे हुए हैं। कथा का आशय निम्नप्रकार है