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________________ सम्पादकीय Xix सहायता से इसके पाठान्तर संगृहीत किए गए हैं। इसके और ब० ज० प्रति के पाठ बहुत कुछ मिलते हैं / पर इसमें वह 22 पत्र वाला पाठ छूटा नहीं है। पत्र संख्या 260, पत्रों की लंबाई चौड़ाई 203426 इञ्च है। प्रत्येक पत्र में 7 से 10 लाइन तथा प्रत्येक लाइन में 115-120 तक अक्षर है / इसकी लिपि तैलगू है / हांसिया में टिप्पणी नहीं हैं; हाँ प्रकरण शुरू होते ही विषय का निर्देश सूक्ष्मरूप में हांसिया में कर दिया है। कुछ पत्र तीन हिस्से करके लिखे गए हैं तथा कुछ पत्र दो हिस्सों में। प्रति अशुद्ध है। थ और द में कोई अन्तर नहीं मालुम होता / प्रति के अन्त में-'श्री जयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृतनिखिलम [ल] कलंकेन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपंडितेन न्यायकुमुदचन्द्रो लघीयअयालंकारः कृतः इति मंगलम् / श्री शालिवाहनशकवर्ष 1765 शुभकृत संवत्सर चैत्रशुद्ध पंचदश यान्ते' लिखा है। इससे इस प्रति के लिखने का समय चैत्र शुद्ध 15 शक 1765 स्पष्ट है। (5) '10' संज्ञक, श्रवणबेलगोला के भट्टारक श्री चारुकीर्ति पंडिताचार्य जी के भंडार की है। यह प्रति पुरानी कनड़ी लिपि में ताड़पत्र पर लिखी गई है। इसके पाठान्तर भी कनड़ी बाचक की सहायता से लिए गए हैं। इसका आदर्श भी भां० प्रति की ही तरह है। अशुद्ध भी उतनी ही है। पत्र संख्या 237, पत्रों की लंबाई चौड़ाई 25-13 इञ्च है। एक पेज में 8-9 लाइन है। प्रत्येक पेज तीन कालम में विभाजित है। पहिले कालम में 29 अक्षर, दूसरे में 48 तथा तीसरे में 89 इस तरह 106-107 अक्षर हर एक पंक्ति में है। टिप्पणी कहीं नहीं है / हां, भां० प्रति की तरह प्रकरण शुरू होते ही उसका निर्देश सूक्ष्माक्षरों में मार्जिन में किया है। इस प्रति की एक विशेषता है कि इसके प्रारम्भ में प्रत्येक पत्र की विस्तृत विषय सूची सरल संस्कृत भाषा में लिखी हुई है जो किसी दूसरी प्रति में नहीं देखी गई। इसके अन्त में भी भा० प्रति की तरह ही 'श्री जयसिंह देवराज्ये' इत्यादि पुष्पिका लेख है। स्वविवृति की संकलना तो आ० प्रति के प्रारम्भ में लगे हुए विवृति के 11 त्रुटित पत्रों के आधार से न्यायकुमुद का समग्रवाचन करके की गई है। पर इसकी यथावत् पूर्णता जयपुर से प्राप्त स्वविवृति की प्रति से ही हो सकी है। आभार प्रदर्शन-यद्यपि इस क्षेत्र में हमारा यह प्रथमप्रयास है, परन्तु विशिष्टसहायकों के कारण हमें विशेष कठिनाई का अनुभव नहीं हुआ। श्रद्धेय पं० सुखलाल जी जैसे दर्शन ख के अधिकारी, अनुभवी विद्वान् के समयोचित परामर्श से तथा इनके द्वारा संपादित सन्मतितर्क का संस्करण सामने रहने से हमें अपने कार्य को तथा संपादनप्रणाली को रूप-रेखा बनाने में जरा भी अड़चन नहीं हुई। इन्हीं के द्वारा हमें अनेकों ग्रन्थ जिनमें सिद्धिविनिश्चयटीका, तत्त्वोपप्लवसिंह, हेतुबिन्दुटीका, प्रमाणसंग्रह आदि अलभ्य लिखित ग्रन्थ शामिल हैं, प्राप्त हो सके / यद्यपि सन्मतितर्क के हम इस संपादन में ऋणी है पर सन्मतितर्क के द्वितीय संस्करण के संपादक इस ऋण को न्यायकुमुदचन्द्र के इस संस्करण से निश्चित रूप से व्याज सहित पा सकेंगे। _ संपादन में प्रेसकापी से लेकर प्रस्तावनान्त सभी कार्य हम और हमारे ज्येष्ठ-सहचर पं० कैलाशचन्द्रजी संयुक्तभाव से करते रहे हैं। हाँ, संपादनांश की जिम्मेवारी हमारे ऊपर तथा प्रस्तावनांश की जिम्मेवारी उनपर रही, अतः सहयोगित्व के नाते उन्हें जो सामग्री संपादनांश में उपयोगी मालुम हुई मुझे बताई, हमें जो सामग्री प्रस्तावना के योग्य प्रतीत हुई, उन्हें बताई। इस तरह पारस्परिक सहयोग से संपादनांश तथा प्रस्तावनांश की पूर्ति एक दूसरे से होती रही। पर जिम्मेवारी आदि कारणों से हमारे ज्येष्ठसहयोगी पं० कैलाशचन्द्रजी की यह प्रबल इच्छा रही कि-'प्रस्तावना में मात्र उन्हीं का तथा संपादन में मात्र मेरा नाम रहे / ' यद्यपि संपादन में
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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