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________________ 114 न्यायकुमुदचन्द मिर्धारित किया है। इस कालनिर्णय के अनुसार विद्यानन्द नवमी शताब्दी के विद्वान् प्रमाणित होते हैं, अतः वे अकलंक के समकालीन नहीं हो सकते / अनन्तवीर्य-सिद्धिविनिश्चयटीका के रचयिता अनन्तवीर्य ने भी धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर और अर्चट का उल्लेख किया है। हेतुबिन्दुटीका के रचयिता अर्चट का समय राहुलजी ने 825 ई० लिखा है। अतः अनन्तवीर्य भी नवमी शताब्दी के विद्वान प्रमाणित होते हैं। इस लिये ये भी अकलंक के समकालीन नहीं थे। प्रभाचन्द्र-न्यायकुमुदचन्द्र के रचयिता प्रभाचन्द्र ने विद्यानन्द और अनन्तवीर्य का स्मरण किया है, अतः जब विद्यानन्द और अनन्तवीर्य ही अकलंक के समकालीन प्रमाणित नहीं होते तब प्रभाचन्द्र की तो बात ही क्या है / इस प्रकार अकलंक के सातवीं शताब्दी का विद्वान् सिद्ध हो जाने के कारण उनके समकालीन कहे जानेवाले विद्वानों में उनके सधर्मा पापण और पप्पण के शिष्य वादीभसिंह ही अकलंक के समकालीन प्रमाणित होते हैं / संशयकोटि में माणिक्यनन्दि, कुमारसेन और कुमारनन्दि भट्टारक को रखा जा सकता है। इनके अतिरिक्त आचार्य सुमति और वराङ्गचरित के रचयिता जटिलकवि अकलंक के समकालीन ज्ञात होते हैं। शान्तरक्षित के तत्त्वसंग्रह में, जो आठवीं शताब्दी के पूर्वाध की रचना है, सुमतिदेव की कुछ कारिकाएँ उद्धृत करके उनकी आलोचना की गई है। तथा वरांगचरित का रचनाकाल सातवीं शताब्दी अनुमान किया जाता है। अतः ये दोनों जैनाचार्य अकलंक के समकालीन मालूम होते हैं। न्यायकुमुद के कर्ता प्रभाचन्द्र और उनका समय जैनसाहित्य और पुरातत्त्व का आलोडन करने से प्रभाचन्द्र नाम के व्यक्तियों की एक लम्बी तालिका तैयार हो जाती है। किन्तु उनमें से प्रत्येक का जो कुछ परिचय प्राप्त होता है, वह इतना अपर्याप्त है कि उसके आधार पर हम उनकी समानता या असमानता का निर्णय नहीं कर सकते। हमारे विचार में उनकी बहुतायत का यह भी एक कारण हो सकता है। न्यायकुमुदचन्द्र के रचयिता प्रभाचन्द्र के बारे में उनकी प्रेशस्तियों से केवल इतना ही ज्ञात होता है कि वे पद्मनन्दि सैद्धान्तिक के शिष्य थे। प्रशस्तियों के परिचयविषयक श्लोक निम्न प्रकार हैं - .. 1 "बोधो मे न तथाविधोऽस्ति न च सरस्वत्या प्रदत्तो वरः साहाय्यं च न कस्यचिद्वचनतोऽप्यस्ति प्रबन्धोदये / यत्पुण्यं जिननाथभक्तिजनितं येनायमत्यद्भुतः संजातो निखिलार्थबोधनिलयः साधुप्रसादात्परः // 1 // ____x _x _x 1 देखो ‘वरांगचरित' शीर्षक प्रो० उपाध्याय का लेख, जैनदर्शन, वर्ष 4, अंक 2 तत्त्वार्थबृत्ति की टोका की प्रशस्ति में तीन श्लोक हैं, प्रमेयकमल की प्रशस्ति में चार और न्यायकुमुद की प्रशस्ति में पाँच / इस प्रकार प्रशस्ति में क्रमशः एक एक श्लोक अधिक होना संभवतः उनके रचनाक्रम को सूचित करता है। अर्थात् प्रथम तत्त्वार्थवृत्ति की टीका रची गई, उसके पश्चात् प्रमेयकमल और उसके पश्चात् न्यायकुमुद /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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