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________________ 112 - न्यायकुमुदचन्द्र वह उस मंगल को किसी वृत्तिकार का ही मानते थे, और प्रतीत भी ऐसा ही होता है, क्योंकि 'इतीयमाप्तमीमांसा' आदि श्लोक के द्वारा आप्तमीमांसा का उपसंहार करने के बाद उक्त श्लोक की संगति नहीं बैठती अतः उसे मूलकार का तो नहीं माना जा सकता। कहीं उक्त श्लोक वादीभसिंह की वृत्ति का अन्तिम मंगल तो नहीं है ? रह रहकर हृदय में यह प्रश्न पैदा होता है, किन्तु अभी उसके सम्बन्ध में विशेष नहीं कहा जा सकता है / अस्तु, __वादीभसिंह की गद्यचिन्तामणि में बाण की कादम्बरी की झलक मारती है अतः वादीभसिंह को राजा हर्ष ( 610-650 ) के समकालीन बाणकवि के पश्चात् का विद्वान मानना होगा। यह समय अकलंकदेव के निर्धारित समय के सर्वथा अनुकूल बैठता है, क्योंकि अक. लंक के समकालीन पुष्पषेण का समय ई० 620 से 680 तक मानने पर उनके शिष्य वादीभसिंह को ई० 650 के बाद ही रखना होगा। किन्तु इसमें एक बाधा उपस्थित होती है / यशस्तिलकचम्पू के द्वितीय उच्छ्वास के 126 वें श्लोक की व्याख्या में व्याख्याकार श्रुतसागरसूरि ने महाकवि वादिराज का एक श्लोक उद्धृत किया है और लिखा है कि वादिराज भी सोमदेवाचार्य के शिष्य थे। तथा सोमदेवाचार्यका 'वादीभसिंहोऽपि मदीयशिष्यः श्री वादिराजोऽपि मदीयशिष्यः' पद्य उद्धृत करके वादीमसिंह को वादिराज का गुरु-भाई और सोमदेवाचार्य का शिष्य बतलाया है। यद्यपि सोमदेव ने शक सं० 881 ( ई० 959) में अपना यशस्तिलकचम्पू समाप्त किया था, और वादिराज ने शक सं० 947 ( ई० 1025) में अपना पार्श्वनाथचरित समाप्त किया था। किन्तु जब तक उक्त उल्लेख के स्थल आदि का पूरा विवरण नहीं मिलता और अन्य स्थलों से उसका समर्थन नहीं होता तब तक उसे प्रमाणकोटि में नहीं रखा जा सकता क्योंकि, दोनों विद्वानों में से किसी ने भी सोमदेव के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा है। तथा वादिराज ने न्यायविनिश्चयालङ्कार के अन्त में दी गई प्रशस्ति में मतिसागर को अपना गुरु बतलाया है और वादीभसिंह पुष्षषेण का स्मरण करते हैं, अतः उपलब्ध प्रमाणों के प्रकाश में हमें तो अकलंकदेव के सतीर्थ्य पुष्पषेण ही वादोभसिंह के गुरु प्रतीत होते हैं और उस दशा में उनका समय ईसा की सातवीं शताब्दी का उत्तरार्ध प्रमाणित होता है। आदिपुराणकार जिनसेनस्वामी ने वादिसिंह नामके एक आचार्य का स्मरण निम्न शब्दों में किया है "कवित्वस्य परा सीमा वाग्मितस्य परं पदम् / गमकत्वस्य पर्यन्तो वादिसिंहोऽर्च्यते न कैः // " इससे प्रतीत होता है कि वादिसिंह बड़े भारी कवि और उत्कृष्ट वाग्मी थे। अपने पार्श्व. नाथचरित के प्रारम्भ में वादिराज ने भो वादिसिंह का स्मरण इस प्रकार किया है "स्याद्वादगिरमाश्रित्य वादिसिंहस्य गर्जिते / दिङ्नागस्य मदध्वंसे कीर्तिभंगो न दुर्घटः // " इस श्लोक में बौद्धाचार्य दिङ्नाग और कीर्ति ( धर्मकीर्ति ) का ग्रहण करके वादिसिंह को उनका समकालीन बतलाया है। प्रेमीजी का मत है कि वादीभसिंह और वादिसिंह एक हो व्यक्ति हैं। यदि यह सत्य है तो इन उल्लेखों से वादीभसिंह के सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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