SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 110 न्यायकुमुदचन्द्र ___ उक्त चारों विद्वानों के पारस्परिक सम्बन्ध की विवेचना और उसका समीकरण करने के पश्चात् अकलंक के निर्धारित समय की बाधक एक उलझन शेष रह जाती है। 'अकलंक का समय' शीर्षक डाक्टर पाठक के निबन्ध से कुमारिल के सम्बन्ध में हम एक वाक्य उद्धत कर आये हैं / उसके आरम्भिक शब्द 'The date of अकलंक is so firmly fixed' की ओर हम पाठकों ध्यान आकर्षित करते हैं / इन शब्दों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि डाक्टर पाठक को अपने द्वारा निर्धारित अकलंक के समय की सत्यता में कितना दृढ़ विश्वास था। उनके इस विश्वास का आधार था प्रभाचन्द्र के एक श्लोक के निम्न चरण ___ "बोधः कोप्यसमः समस्तविषयः प्राप्याकलंकं पदम् जातस्तेन समस्तवस्तुविषयं व्याख्यायते तत्पदम् / " न्या० कु० जिसका अर्थ यह किया गया कि प्रभाचन्द्र ने अकलंक के चरणों के समीप बैठकर ज्ञान प्राप्त किया था। और उससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि प्रभाचन्द्र अकलंक के शिष्य थे / अपने उक्त लेख में श्रीकण्ठेशास्त्री के मत की आलोचना करते हुए डा० पाठक ने बड़े जोर के साथ लिखा है कि-"यदि अकलंक का समय 645 ई० माना जायेगा तो 'प्राप्याकलंक पदं' के अनुसार प्रभाचन्द्र, जिनका स्मरण आदिपुराण ( ई० 838 ) में किया गया है और जो अमोघवर्ष प्रथम के समय में हुए हैं-अकलंक के चरणों में नहीं पहुँच सकते।" ___आदिपुराणकार ने जिन प्रभाचन्द्र का स्मरण किया है, वे न्यायकुमुदचन्द्र के कुर्ता प्रभाचन्द्र से जुदे व्यक्ति हैं। न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता का विचार करते समय इसका स्पष्टीकरण किया जायेगा। उक्त श्लोक में 'पद' शब्द का अर्थ प्रकरण है न कि चरण। यदि प्रभाचन्द्र अकलंक देव के शिष्य होते तो लघीयत्रय के व्याख्यान में इतनी भारी भूल न करते और न न्यायकुमुद के अन्त में 'साहाय्यं च न कस्यचिद् वचनतोऽप्यस्ति प्रबन्धोदये।' लिखकर न्यायकुमुद की रचना में किसी की सहायता न मिलने का ही उल्लेख करते / प्रभाचन्द्र की तो बात ही क्या ? अकलंक के प्रकरणों के दक्ष व्याख्याकार अनन्तवीर्य और विद्यानन्द भी, जिनका स्मरण प्रभाचन्द्र ने किया है, अकलंक के समकालीन नहीं है, जैसा कि आगे के लेख से ज्ञात हो सकेगा। अतः प्रभाचन्द्र के उक्त श्लोक के आधार पर प्रभाचन्द्र को अकलंक का साक्षात् शिष्य बतलाना और इसी लिये अकलंक को सातवीं शताब्दी के मध्य से खींच कर आठवीं शताब्दी के मध्य में लारखना सर्वथा भूल है / __इस प्रकार अकलंक को ईसा को सातवीं शताब्दी का विद्वान मानने में जो बाधाएँ उपस्थित की जाती हैं. वे यथार्थ नहीं है। और उन्हें आठवीं शताब्दी का विद्वान सिद्ध करने के लिये जो हेतु दिये जाते हैं उनमें से कोई हेतु उन्हें आठवीं शताब्दी का विद्वान सिद्ध नहीं करता, बल्कि उनमें से दो हेतु तो उन्हें सातवीं शताब्दी का ही विद्वान सिद्ध करते हैं। अतः अकलंक का काल ई० 620 से 680 तक मानना चाहिये / 1 भण्डारकर प्रा० वि० म० की पत्रिका, जिल्द 12, पृ० 253-255 में 'विद्यानन्द और शङ्करमत' शीर्षक से श्रीकण्ठशास्त्री का एक लेख प्रकाशित हुआ था। उसमें लेखक ने अकलंक का समय 645 ई. लिखा है, जो हमारे मत के अनुकूल है। 2 इस भूल का दिग्दर्शन न्यायकुमुदचन्द्र पर विचार करते समय करा आये हैं। 3 विशेष जानने के लिये देखो, पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार द्वारा लिखित "प्रभाचन्द्र अकलंक के शिष्य नहीं थे। शीर्षक लेख, अनेकान्त वर्ष 1 पृ० 130 /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy