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________________ 108 न्यायकुमुदचन्द्र अपने पांचसौ शिष्यों के साथ बौद्धधर्म स्वीकार करना या उसका भवभूति का गुरु होना संभव नहीं है।" ___ धर्मकीर्ति और कुमारिल के सम्बन्ध की उक्त किंवदन्ती को सत्यता में इतिहासज्ञों का विश्वास नहीं है। कुमारिल के बुद्धधर्म स्वीकार करने की कथा तो स्पष्टतया कल्पित प्रतीत होती है। जहां तक हम जान सके हैं धर्मकीर्ति और कुमारिल के ग्रन्थों में परस्पर में कोई आदान प्रदान हुआ प्रतीत नहीं होता। हां, वेद के अपौरुषेयत्व के खण्डन में धर्मकीर्ति ने वेदाध्ययनवाच्यत्व हेतु का प्रकारान्तर से निर्देश करके उसकी आलोचना की है / यदि यह हेतु कुमारिल के द्वारा ही आविष्कृत हुआ है तो कहना होगा कि धर्मकीर्ति ने कुमारिल को देखा था। उधर 'भर्तृहरि और कुमारिल' शीर्षक निबन्ध में डाक्टर पाठक ने लिखा है कि-"मीमांसाश्लोकवार्तिक के शून्यवाद-प्रकरण में कुमारिल ने बौद्धमत के 'आत्मा बुद्धि से भेदवाला दिखाई देता है' इस विचार का खण्डन किया है / श्लोकवार्तिक की व्याख्या में इस स्थान पर सुचरितमिश्र ने धर्मकीर्ति का निम्नलिखित श्लोक, जिसको शंकराचार्य और सुरेश्वराचार्य ने भी लिखा है, बारम्बार उद्धृत किया है "अविभागोऽपि बुद्धयात्मा विपर्यासितदर्शनैः। ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते // " इससे यह मालूम होता है कि कुमारिल ने दिङ्नाग और धर्मकीर्ति-दोनों के विचारों की समालोचना की है। अतः यह सिद्ध होता है कि कुमारिल धर्मकीर्ति के बाद हुए।" यदि हमारा और डाक्टर पाठक का दृष्टिकोण सत्य है तो धर्मकीर्ति और कुमारिल को समकालीन मानना ही होगा। यह बात अकलङ्क के निर्धारित किये गये समय से भी प्रमाणित होती है, क्योंकि जब अकलङ्क का समय ई० 620 से 680 तक प्रमाणित होता है और अकलङ्क ने धर्मकीर्ति और कुमारिल दोनों की ही आलोचना की है तो दोनों को समकालीन मानने के सिवाय दूसरा मार्ग नहीं है। धर्मकीर्ति नालन्दा विश्वविद्यालय के अध्यक्ष धर्मपाल के शिष्य थे। चीनी यात्री हुएनत्सांग जब ई० 635 में नालंदा पहुँचा, तब उसे मालूम हुआ कि कुछ ही समय पहले आचार्य धर्मपाल अपने पद से निवृत्त होगये हैं। इस वृत्तान्त से ज्ञात होता है कि धर्मपाल ई० 635 तक विद्यमान थे। अतः धर्मकीर्ति का काल 635 ई० से 650 तक माना जाता है / हुएनत्सांग ने अपने यात्राविवरण में भर्तृहरि की तरह धर्मकीर्ति का भी उल्लेख नहीं किया है। इसपर भिक्षुवर राहुल जी का मत है कि हुएनत्सांग के नालन्दा आने से पहले धर्मकीर्ति की मृत्यु हो चुकी थी, और यतः वह सब विद्वानों के नाम लिखने के लिये बाध्य नहीं था अतः उसने धर्मकीर्ति का नाम नहीं लिखा। राहुल जी की यह कल्पना डाक्टर पाठक की भर्तृहरिविषयक कल्पना से सर्वथा विपरीत है / डाक्टर पाठक की कल्पना में तो यह विचार अन्तर्निहित था कि मनुष्य अपने जीवनकाल में ख्यात नहीं होता किन्त मृत्यु के बाद उसे ख्याति मिलती है। किन्त राहल. जी की कल्पना में इसके बिल्कुल विपरीत विचार काम करता है। वे सोचते हैं कि धर्मकीर्ति सरीखे तेजस्वी विद्वान के उपस्थित रहते ह्यूनत्सांग का उनसे परिचय न हुआ हो, यह संभव नहीं है / और परिचय होने से उसका उल्लेख होना चाहिये था। यहां, राहुल जी यह भूल जाते 1 देखो, 'वादन्याय' की प्रस्तावना /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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