________________ नमस्कार स्वाध्याय [संस्कृत तैर्ध्व ही खरान्तस्थ-सान्त सिंहासनो जिनः / ही "त्रिरेखयाऽऽवेष्टय, बहिर्वारुणमण्डलम् // 12 // अनुवादः-ह, र्, ई (उपलक्षणथी . . .) ए छे सिंहासन जेनुं एवो हीकार स्वरूप जिन तेनी उपरना भागे स्थापन करवो। (अर्थात् अहीं जे ह्रीकारनुं आलेखन छे ते सिंहासनरूप छे अने 5 तेनी उपर जे 24 जिनवरोर्नु आलेखन छे ते हीकार स्वरूप जिनवरो छे)। (तथा) हीकारनी त्रण रेखाथी वारुणमंडलनी बहारनो भाग आवेष्टन करवो // 12 // सर्वे कूटाक्षरोमां प्रथम अक्षरो अनुक्रमे क् थी क्ष् सुधीना व्यंजनो छे / तेमाथी बे अक्षर उपर दर्शाव्या प्रमाणे बाद करवामां आव्या छे। बीजो अक्षर मंकार छे। मकारने आराधकनो आत्मा मानवामां आवे छे / तेने मूलाधारचक्र, स्वाधिष्ठानचक्र, मणिपूरचक्र तथा अनाहतचक्र साथे जोडवा माटे 10 ते ते चक्रोना बीजाक्षरो जे अनुक्रमे ले व थाय छे ते तेनी साथे संयुक्त करवामां आवे छे / / उकार- दीर्घस्वरूप देवतानी प्रसन्नता माटे छे अने नादानुसंधान माटे कला तथा बिंदु छ / कूटाक्षरो द्वारा प्राण अने मंत्राक्षरोनुं विषुव साधवा माटे प्रक्रिया करवी जोईए ते अहीं गुरुगमथी मेळववी जोईए / आने कोई पिण्डाक्षरो पण कहे छ / 44. सुधांशुभम्-चंद्र अने तारावाळु वलय / 15 45. तदूर्ध्वम्-तेनी उपर हीकार त्रण स्वरूपे : 1. ही -श्वेत संज्ञाक्षर-सिंहासन रूपे। 2. , -ना वाच्य 24 जिनवरोना स्वरूपे / 3. , प्राणशक्ति स्वरूपे / नरदेहमां प्राणशक्ति साडा त्रण आंटा दईने सुषुप्त दशामां पडी छे। तदनुसार यंत्रदेहने आवेष्टन करीने क्रोंकारथी अंकुशित दर्शाववामां आवी छ। 46. स्वर-ईकार / 47. अन्तस्थ–रकार। 48. सान्त-हकार। 49. त्रिरेखया-त्रण रेखाथी / रेखाने मात्रा पण कहे छे। (त्रिर्माया मात्रयाऽऽवेष्टय 25 निरन्ध्यादङ्कुशेन तु) 50. बहिर्वारुणमण्डलम्-क्षार समुद्रना मंडळनी बहार / (वारुणमण्डलस्य बहिः / ) - सरखावो: तस्योपरि सकारान्तं, बीजमध्यास्य सर्वगम् / नमामि बिम्बमाईन्त्यं, ललाटस्थं निरञ्जनम् // 13 //