________________ [संस्कृत नमस्कार स्वाध्याय चन्द्रसूर्यादिग्रहयुग दशदिक्पालपालितः। गृहे तु पूज्यते यस्य तस्य स्युः सर्वसिद्धयः // 28 // इयं कला सिद्धिकला बिन्दुरूपमिदं मतम् / स्वरूपं सर्वसिद्धानां निराबाधपदात्मकम् // 29 // करजापं लक्षमितं होमं च तदशांशतः। कुर्याद् यः साधको मुख्यः स सर्व वाञ्छितं लभेत् // 30 // . .. अधिष्ठित छ। ए चंद्र, सूर्य वगेरे नवे ग्रहोथी युक्त अने दश दिक्पालोथी सुरक्षित छ। एवा आ 'ही'कारबीजनुं जेना घरमा पूजन थाय छे तेने बधी सिद्धिओ मळे छे // 26-28 // 'ही'कार उपर आ कला छे ते सिद्धिनी कला (सिद्धशीला) छे अने आ बिंदु ते सर्व सिद्धोनुं 10 निराबाधपदात्मक स्वरूप छे, एम कहेवाय छे // 29 // ___ जे साधक विधिपूर्वक एक लाख प्रमाण करजाप अने दशमा भागनो (दश हजारनो) होम करे छे ते सर्वदा सर्व वांछितोने प्राप्त करे छे // 30 // .. परिचय श्री जिनप्रभसूरिनी आ कृतिनी नकल आ० श्रीविजयप्रतापसूरिजी. पासेयी मळी हती। 15 तेने भाषानी दृष्टिए सुधारी अनुवाद साथे अहीं प्रगट करी छ। ____ श्री जिनप्रभसूरिए आ 'हीकारकल्प 'नो 'मायाबीज-बृहत्कल्प 'मांधी उद्धार कर्यो होवानु प्रथम पद्यमां जणाव्युं छे, एटले ए 'बृहत्कल्प 'नी कृति प्राप्त थाय तो ह्रीकार विशेनी केटलीये अद्भुत हकीकतो प्रकाशमां आवे। श्री जिनप्रभसूरि चौदमा सैकाना समर्थ विद्वान हता। त्रीश अनुष्टुप् श्लोकोमां आ कल्पनी रचना छे, तेमां हीकारयंत्र, तेनी साधनानी बाह्य सामग्री, 20 साधकनुं लक्षण, जापना प्रकारो अने तेनी साधनानुं फळ जणावीने ध्यानविधिनी समजणं आपी छ। आ स्तोत्रमा कहेवामां आव्युं छे के 'ही'कार सर्वमंत्रमय, सर्वदेवमय, जिनचतुर्विशतिमय, परमेष्ठिमय, सिद्धचक्रमय, रत्नत्रयमय अने सर्वतीर्थमय छे; ए रीते एनुं माहात्म्य सारं गवायुं छे। आ स्तोत्रमा हीकारना श्वेतध्यान- वर्णन सुंदर रीते करवामां आव्यु छ। श्रीजिनप्रभसूरिनी आ रचना स्वानुभवपूर्वकनी होवाथी ह्रीकारना विषयमां सुंदर प्रकाश पाडे छ। 'हाँ'कारने समजवामां विशेष उपयोगी थाय एवी बीजी बे कृतिओ अमने प्राप्त थई छ। आ कृतिओना कर्ता विशे कई माहिती मळी नथी; परंतु तेनी भाषाशैली अने आम्नायनी रीतिने लक्षमा लेतां ते “जैनेतर" कृतिओ होय एम लागे छे। तेथी ए बन्ने कृतिओ हवे पछी परिशिष्टरूपे आपी छे। 25