________________ [76-31 (अ)] श्रीजयतिलकसूरिविरचित श्रीहरिविक्रमचरितान्तर्गतसंदर्भः श्रीतीर्थाय नमस्तस्मै, पंचशाखश्रिये सदा। पंचैते वितता यस्य, शाखाः श्रीपरमेष्ठिनः // 1 // अहंतस्ते जयन्त्यत्र, निःस्नेहाः रत्नदीपकाः। स्पर्धा करोत्यलोकेन, येषां ज्ञानमयं महः // 2 // सिद्धेभ्योऽपि नमस्तेभ्यो, मुक्तेभ्यो कर्मकश्मलैः। मूर्ध्नि चूडामणीयन्ते, लोकपुंसः सदैव हि // 3 // शिवंगतेषु सार्वेषु, शासनं धारयन्ति ये। पंचधाचारधारिभ्य, आचार्येभ्यो नमः सदा // 4 // उपाध्याया जयन्त्यत्र, सूत्रार्थजलराशयः। गृहीत्वा (च) जलं येभ्यो, घना वर्षन्ति साधवः // 5 // मूलोत्तरगुणैः शुद्धं, चारित्रं पालयन्ति ये। सर्वेभ्योऽपि त्रिधा तेभ्यः, साधुम्यो भुवने नमः // 6 // 15 अनुवाद जेनी आ पांच परमेष्ठि भगवंतो पांच विशाळ शाखाओ छे एवा ते जगप्रसिद्ध श्रीतीर्थने हुँ मतिज्ञानादि पांच शाखाओवाळी ज्ञानलक्ष्मीनी प्राप्ति माटे सदा नमस्कार करुं छु // 1 // तेल विनाना रत्नदीप जेवा ते (वीतराग) अरिहंतो आ विश्वमा सदा जय पामे छे के जेमनो ज्ञानमय प्रकाश अलोकाकाश साथे स्पर्धा करे छे (तात्पर्य के ते ज्ञानप्रकाश अलोकाकाशने पण प्रतिक्षण 20 पोतानो विषय बनावे छे) // 2 // ते सिद्धोने पण सर्वदा नमस्कार हो के जेओ कर्ममलथी मुक्त छे अने जेओ लोकरूप महापुरुषना मस्तक उपर सर्वदा चूडामणिनी जेम शोमी रह्या छे // 3 // - श्रीतीर्थंकर भगवंतोना निर्वाण पछी जेओ श्री जिनशासनने धारण करे छे, ते पांच प्रकारना आचारने धारण करनारा श्री आचार्य भगवंतोने सर्वदा नमस्कार हो // 4 // 25 - सूत्रार्थरूपजलना महासागर एवा ते उपाध्याय भगवंतोपण आ लोकमां जय पामे छे के जेमनी पासेथी साधुरूप वादळांओ जल ग्रहण करीने वरसे छे-लोकमां श्री जिनवाणीरूप जलनी सदा वर्षा करे छे // 5 // .. जेओ मूल अने उत्तर गुणोथी शुद्ध चारित्रने पाळे छे, लोकमां रहेला ते सर्व साधु भगवंतोने हुं त्रिकरणशुद्ध नमस्कार करुं छु // 6 // * 1 धारण = धारण, रक्षण, प्रचार वगेरे.