SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [75-30] याकिनीमहत्तरासूनु-भवविरहाङ्क-भगवत्-श्रीहरिभद्रसूरिकृत षोडशकप्रकरण' संदर्भः अस्मिन् हृदयस्थे सति, हृदयस्थस्तत्त्वतो मुनीन्द्र इति / हृदयस्थिते च तस्मिन् , नियमात्सर्वार्थसंसिद्धिः॥ 2 // 14 // चिन्तामणिः परोऽसौ, तेनैव भवति समरसापत्तिः। सैषेह योगिमाता, निर्वाणफलप्रदा प्रोक्ता // 2 // 15 // एतदिह भाषयज्ञः, सद्गृहिणो जन्मफलमिदं परमम् / अभ्युदयाव्युच्छित्या, नियमादपवर्गवीजमिति // 6 // 14 // 10 अनुवाद आ जिन प्रवचन ज्यारे हृदयमा स्वाध्यायादि द्वारा प्रतिष्ठित थाय छे त्यारे परमार्थथी श्रीजिनेश्वर परमात्मा ज हृदयमा प्रतिष्टित थाय छे अने ज्यारे श्रीजिनेश्वर भगवंत हृदयमा प्रतिष्ठित थाय छे स्यारे अवश्यमेव सर्वप्रयोजनोनी सिद्धि थाय छे॥२-१४॥ ___15 . सर्व प्रयोजनोनी सिद्धि थवानुं कारण ए छे के आ श्रीजिनेश्वर भगवंत परम चिन्तामणि छे, तेओ हृदयमा प्रतिष्ठित थतां तेमनी साथे ध्यातानी समरसापत्ति थाय छे। आ समरसापत्ति योगीओनी माता छे अने निर्वाणफलनी प्रसाधक छ। [आत्मा ज्यारे सर्वज्ञना स्वरूपमा उपयोगवाळो बने छे त्यारे तेनो अन्यत्र उपयोग न होवाथी ते स्वयं सर्वज्ञरूप थाय छे / नयविशेष एम माने छे के जे जे वस्तुना उपयोगमा आत्मा वर्ते छे ते ते वस्तुना स्वरूपने ते धारण करे छे. जेम निर्मल स्फटिकमणिमा उपाधि (जेनुं मणिमां 20 'प्रतिबिम्ब पडे ते वस्तु) प्रतिबिम्बित देखाय छे अने ते मणि उपाधिना वर्णादिने धारण करे छे, तेम निर्मल आत्मा पण ध्यान वडे परमात्मरूपताने धारण करे छे। ए ज समापत्ति / अथवा ध्याता, ध्यान अने ध्येयनी एकता पण समापत्ति कहेवाय छे.] // 2-15 // ... आ जिनभवननु करावq ते सद्गृहस्थनी भावपूजा छे, आ जन्मनु परमफळ छ। अने अनुक्रमे 25 अविच्छिन्न रीते स्वर्गादि सुखोने आपीने अंते मोक्षने आपनाएं छे // 6-14 // :
SR No.004318
Book TitleNamaskar Swadhyay Sanskrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1962
Total Pages398
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy