________________ विभाग] 245 उपदेशतरङ्गिण्यान्तर्गतः संदर्भः सङ्ग्राम-सागर-करीन्द्र-भुजङ्ग-सिंहदुर्व्याधि-वह्नि-रिपु-बन्धन-सम्भवानि। चौर-ग्रह-भ्रम-निशाचर-शाकिनीनां, नश्यन्ति पञ्च-परमेष्ठि-पदैर्भयानि // 10 // ध्यातोऽपि पापशमनः परमेष्ठि-मन्त्रः, किं स्यात्तपःप्रबलितो विधिनार्चितश्च / दुग्धं स्वयं हि मधुरं क्वथितं तु युक्त्या, सम्मिश्रितं च सितया वसुधा-सुधेव // 11 // आकृष्टिं सुर-सम्पदां विदधती मुक्ति-श्रियो वश्यता'मुच्चाटं विपदां चतुर्गतिभुवां विद्वेषमात्मैनसाम् / स्तम्भं दुर्गमनं प्रति प्रयततां मोहस्य सम्मोहनम् , पायात् पञ्च-नमस्क्रियाक्षरमयी साराधना देवता // 12 // यो लक्षं जिनबद्ध-लक्ष्य-सुमनाः सुव्यक्त-वर्णक्रमः,. श्रद्धावान् विजितेन्द्रियो भवहरं मन्त्रं जपेच्छावकः / पुष्पैः श्वेत-सुगन्धिभिश्च विधिना लक्ष-प्रमाणैर्जिनं, यः सम्पूजयते स विश्वमहितः श्रीतीर्थराजो भवेत् // 13 // 10 . पंच-परमेष्ठिनां पदोवडे रण-संग्राम, सागर, हाथी, सर्प, सिंह, दुष्टव्याधि, अग्नि, शत्रु अने बंधनथी उत्पन्न तथा चोर, ग्रह, भ्रम, राक्षस अने शाकिनीथी थनारां भयो नाश पामे छे // 10 // . परमेष्ठि-मंत्र स्मरण करवा मात्रथी पापने शमावनारो थाय छे, तो पछी तपथी प्रबल करायेलो अने विधिथी पूजायेलो (आ मंत्र) शुं न करे? दूध पोतानी मेळे ज मधुर छे, पण युक्तिथी उकाळेलु अने 20 साकरथी मिश्रित करेलु होय तो ते पृथ्वीना अमृत-तुल्य बने छे // 11 // ते पंच-परमेष्ठि-नमस्क्रियाना अक्षर स्वरूप आराधना देवता (तमारु) रक्षण करो के जे सुरसंपदाओगें आकर्षण छे, मुक्तिरूपी लक्ष्मीनुं वशीकरण करे छे, संसारनी चार गतिओमां रहेली विपदाओगें उच्चाटन करे छे, आत्माना पापोनें विद्वेषण करे छे, दुर्गतिमां जवा माटे प्रयत्न करता जीवोनुं स्तम्भन करे छे अने मोहनुं संमोहन करे छे // 12 // - श्री जिनेश्वरमा दृढ थयुं छे लक्ष्य (ध्यान) जेनुं एवो अने एथी पवित्र मनवाळो, सुस्पष्ट वर्णक्रम(वर्णोच्चार)वाळो, श्रद्धावान् अने जितेन्द्रिय एवो जे श्रावक संसारनो नाश करनार आ (पंच-परमेष्ठी) मंत्रनो जाप करे छे अने श्वेत सुगन्धी एक लाख पुष्पोवडे श्री जिनेश्वरनी विधिपूर्वक सम्यक् प्रकारे पूजा करे छे, ते विश्वपूज्य तीर्थंकर बने छे // 13 // 25