________________ श्रीरत्नमंदिरगणिविरचितः उपदेशतरङ्गिण्यान्तर्गतः संदर्भः विमुच्य निद्रां चरमे त्रियामा-यामार्धभागे शुचिमानसेन / दुष्कर्मरक्षोदमनैकदक्षो ध्येयस्त्रिधा श्रीपरमेष्ठिमन्त्रः // 1 // किमत्र मन्त्रौषधि-मूलिकाभिः, किं गारुड-स्वर्ग-मणीन्द्रजालैः / स्फुरन्ति चित्ते यदि मन्त्रराज-पदानि कल्याण-पद-प्रदानि // 2 // श्रीमन्नमस्कार-पदानि सर्व-सिद्धान्तसाराणि नवापि नूनम् / आद्यानि पश्चातिमहान्ति तेषु, मुख्यं महाध्येयमिहामनन्ति // 3 // पञ्चतायाः क्षणे पश्च, रत्नानि परमेष्ठिनाम् / आस्ये ददा(धा)ति यस्तस्य, सद्गतिः स्याद् भवान्तरे // 4 // 10 अनुवाद 15 रात्रिना छेल्ला प्रहरनो अर्धभाग बाकी रहे त्यारे निद्राने छोडीने दुष्ट-कर्मरूपी राक्षसनुं दमन करवामां अत्यन्त चतुर एवा श्री परमेष्ठिमंत्र- पवित्र मनवाळा थईने मन-वचन-कायाथी ध्यान करवू जोईए // 1 // जो चित्तने विषे कल्याणनां पदने आपनारां पंच-परमेष्ठि-नमस्कार रूपी मंत्रराजनां पदो स्फुराय'सान छे, तो पछी मंत्र अने औषधिओनां मूळो वडे के गारुड (मरकत) मणि, चिंतामणि के इन्द्रजालोनुं शुं काम छे ? // 2 // श्री नमस्कारनां नवे पदो खरेखर सर्व सिद्धान्तमा सारभूत छे / तेमां पहेलां पांच पदो अतिमहान् छे अने तेमां पण मुख्य पहेला पदने सत्पुरुषो महाध्येय तरीके स्वीकारे छे॥३॥ 20 मरणना क्षणे पांच परमेष्टिरूपी पांच रत्नोने जे मुखने विषे धारण करे छे, तेनी भवान्तरने विषे सद्गति. थाय छे // 4 // १छेला बे चरणनो बीजो अर्थ-तेमां पण प्रथम पांच पदो अति महान् छ। कारण के विद्वानो तेमने प्रधान ध्येय तरीके माने छे।