________________ 5 [60-15] श्रीजिनप्रभसरिरचिता पञ्चनमस्कृतिस्तुतिः [अनुष्टुप् छन्दः] प्रतिष्ठितं तमःपारे, पारेवाग्वर्तिवैभवम् / / प्रपञ्चं वेधसः 'पञ्च-नमस्कार मभिष्टुमः // 1 // अहो! पञ्चनमस्कारः, कोऽप्युदारो जगत्सु यः। सम्पदोष्टौ स्वयं धत्ते, दत्तेऽनन्ताः स्तुतः सताम् // 2 // दत्तेऽनुकूल एवान्यो, भुक्तिमात्रमपि प्रभुः। एष पञ्चनमस्कारः, प्रतिलोम्येऽपि मुक्तिदः॥३॥ नमस्कारनरेन्द्रस्य, किमपि प्राभव स्तुमः / यदीयफूत्कृतेनाऽपि, विद्रवन्ति द्विषः क्षणात् // 4 // सिद्धयोऽप्यणिमाद्यास्ता, नमस्कारमधिष्ठिताः।। सप्तषष्टयक्षरात्माऽपि, यदसौ प्रणवेऽविशत् // 5 // 10 अनुवाद अंधकारनी पेले पार रहेला (प्रकाशरूप), वाणीमा रहेली शक्तिथी पर (एटले—जेनुं वर्णन करवामां वाणी असमर्थ छे) अने ब्रह्म(ज्ञान)ना विस्ताररूप (!) पंच-नमस्कारनी अमे स्तुति करीए छीए॥१॥ अहो ! (आ) पंचनमस्कार त्रण जगतमां कोई अद्वितीय उदार छे, जे स्वयं आठ संपदाओ (विश्रामस्थानो) ने धारण करे छे, (पण) स्तुति करायेलो ते (पंच-नमस्कार) सज्जनोने अनन्त संपदाओ आपे छे // 2 // 20 बीजो स्वामी अनुकूळ (प्रसन्न) थाय तो ज केवळ भुक्ति-भोग मात्रने आपे छ। (ज्यारे) आ पंचनमस्कार प्रतिलोमे (व्युत्क्रमथी-पश्चानुपूर्वीथी गणवा छता) पण मुक्तिने आपनार छे // 3 // नमस्काररूपी महाराजाना महिमा- अमे केटलु वर्णन करीए के (नमस्कार नरेन्द्रना ते अनिर्वचनीय महिमाने अमे स्तवीए छीए के) जेना फूत्कारमात्रथी शत्रुओ एक क्षणमां नाश पामे छे // 4 // ते (अत्यन्त विख्यात) अणिमादि (आठ) सिद्धिओ पण नमस्कार(मंत्र)मां अधिष्ठित छे। तेथी 25 सड(अड)सठ अक्षरवाळो होवा छतां पण आ मंत्र प्रणव-ओंकारमा समाई गयो छे // 5 // 1. नन्तास्तु ताः सताम् J / 2. लोम्योऽपि H / 3. बद्धमोक्षमित्यानायः। 4. माहात्म्यम् / 5. अष्टषष्टय /