________________ 174 [संस्कृत नमस्कार स्वाध्याय ज्ञान-दर्शन-चारित्र-त्रयी-त्रिपथगोर्मिभिः / भुवन-त्रय-पावित्र्य-करो धर्मो हिमालयः॥८॥ नानादृष्टान्त-हेतूक्ति-विचार-भर-बन्धुरे। ' स्याद्वाद-तत्त्वे लीनोऽहं, भग्नैकान्तमत-स्थितौ // 9 // नवतत्त्व-सुधा-कुण्डगर्भो गाम्भीर्य-मन्दिरम् / अयं सर्वज्ञ-सिद्धान्तः, पातालं प्रतिभाति मे // 10 // सर्व-ज्योतिष्मतां मान्यो, मध्यस्थ-पदमाश्रितः। रत्नाकरावृतोऽजन्तालोकः श्रीमान् जिनागमः॥११॥ स्थानं सुमनसामेकं स्थास्नुलोकद्धयोरपि। विनिद्र-शाश्वत-ज्योतिर्भाति गौः परमेष्ठिनः // 12 // श्रीधर्मभूमीश्वर-राजधानी, दुष्कर्म-पाथोज-वनी-हिमानी। सन्देह-सन्दोह-लता-कृपाणी, श्रेयांसि पुष्णातु जिनेन्द्र-वाणी // 13 // एवं नमस्कृति-ध्यान-सिन्धु-मग्नान्तरात्मनः। आममृत्कुम्भवत्सर्व-कर्मग्रन्थिविलीयते // 14 // धर्मरूपी हिमालय पर्वत ज्ञान, दर्शन अने चारित्र ए रत्नत्रयीरूप गंगा नदीना तरंगो वडे त्रण भुवनने पवित्र करनारो छे // 8 // विविध प्रकारना दृष्टान्तो, हेतुओ, सुवचनो अने सुंदर विचारणाओना समूहथी मनोहर अने भग्न कराई छे एकान्त मतोनी स्थिति जेना वडे एवा स्याद्वाद तत्त्वमा हुं लीन थयो छु // 9 // नवतत्त्वरूपी अमृतनो कुंड जेना गर्भमा छे एवो अने गांभीर्यनां मन्दिर समान आ सर्वज्ञ 20 सिद्धान्त मने पाताल जेवो ऊंडो प्रतिभासे छे // 10 // मध्यस्थ (रागद्वेषरहित) भावने आश्रित होवाथी, सुवचनरूप रत्नोनी खाणोथी व्याप्त होवाथी - अने अनंत प्रकाशवाळो होवाथी श्री जिनागम सर्व बुद्धिमान पुरुषोने मान्य छे / // 11 // पवित्र मनवाळा पुरुषोनो एकमेव आधार, बन्ने लोकमां स्थायी अने विकस्वर शाश्वत ज्योतिरूप श्री जिनवाणी शोमे छे // 12 // 25 श्री धर्मरूपी राजानी राजधानीरूप, दुष्कर्मोरूपी कमळना वनने बाळी नाखवामां हिमना समूहरूप अने संदेहना समूहरूप लताने छेदवामां कुहाडी समान जिनेश्वरनी वाणी अमारा कल्याणपोषण करो // 13 // आ प्रमाणे नमस्कारना ध्यानरूप समुद्रमा जेनो अंतरात्मा मन थयेलो छे, तेनी बधी कर्मरूपी गांठो काचा माटीना घडानी जेम विलय पामे छे // 14 // 1. द्वयोपरि क.ग. घ. हि.।