________________ // : 15 नमस्कार स्वाध्याय [संस्कृते ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपांसीति स्मरन् मुनिः। शतमष्टोत्तरं लब्ध्वाद्धा), चतुर्थतपसः फलम् // 33 // कृत्वा पापसहस्राणि, हत्वा जन्तुशतानि च / अमुं मन्त्रं समाराध्य, "तिर्यञ्चोऽपि दिवं गताः // 34 // पतद् व्यसनपाताले, भ्रमत् संसारसागरे / अनेनैव जगत् सर्वमुद्धृत्य विधृतं शिवे // 35 // मूर्ध्नि रत्नत्रयं बिभ्रज्जिनबीजं नमोऽक्षरम् / इति रत्नत्रयं ध्येयं, जिनबीजस्य बीजकम् // 36 // अनुवादः-ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूपी तपने 108 वार स्मरण करतो मुनि उपवासना फळने 10 प्राप्त करनारो थाय छे // 33 // अनुवादः-पूर्वे हजारो पापो कर्या छतां अने सेंकडो जीवोनी हिंसा कर्या छता. पण (पछीना जीवनमा) आ मंत्रनुं आराधन करवाथी पशुओ पण स्वर्गगामी बन्यां छे // 34 // + ___ अनुवादः-व्यसनरूप पाताळमां पडतुं अने संसारसागरमा भमतुं एवं जगत आ मंत्र वडे ज उद्धरीने शिवमा धारण करायुं छे // 35 // - अनुवादः-मस्तक पर रत्नत्रयस्वरूप रेफने धारण करतुं अने नमो अक्षरवाळु जिनबीज (अर्ह) (अर्थात् ' ही अर्ह नमः') रत्नत्रय तरीके ध्येय छ। ते (रत्नत्रय) जिनबीजनुं पण बीज छे // 36 // 80. ज्ञान-दर्शन-चारित्र तपांसि (उ) ज्ञान-दर्शन-चारित्रेभ्यो (नमः)-आ प्रमाणे जाप्य मूलमन्त्रना त्रीजा खंडनुं जे मुनि 108 वार स्मरण करे छे ते उपवासना फळने प्राप्त करे छे। अहीं ज्ञान, दर्शनं, चारित्र त्रिरत्नरूपी 20 तप छे। 81. मुनिः-मुनि एटले जगतना तत्त्वोनुं मनन करनार / अथवा मुनि एटले मौन(संयम)ने धारण करनार / ___ 82. तिर्यश्चः-जो तिर्यचो पण आ मंत्रनी आराधनाथी स्वर्गने पाम्या, तो बुद्धिमान मनुष्य एनाथी शुं न पामी शके ? 25deg 83. अनेनैव....शिवे-आ मंत्रनी साधना ए महान धर्म छे। धर्मनुं लक्षण करतां पण शास्त्रकारोए कयुं छे के 'जे दुर्गतिमांथी जीवनी रक्षा करे अने तेने मोक्षमां धारण करे, ते धर्म कहेवाय'। 84. रत्नत्रयं....बीजकम्-अहीं ॐ ही अर्ह नमः नो ध्येय तरीके निर्देश करवामां आव्यो छे; कारण के, रत्नत्रय ए जिनबीजनुं पण बीजक छ। आत्मा जिन (परमात्मा) बनावनार रत्नत्रय होवाथी, तेने जिनबीजनुं पण बीज कहेवामां आवे छे। रत्नत्रयनी मुख्यता आ प्रमाणे नाना मंत्रपदमां दर्शावीने 30 समप्र यंत्रस्तवना सार तरीके तेने कहेवामां आव्युं छे। + आ श्लोक 'योगशास्त्र'ना अष्टम प्रकाशमां श्लोक नं. 37 तरीके मळे छे। मूलमंत्रना त्रीजा खंडनी फलश्रुति आ श्लोकमां तथा आ पछीना श्लोकमां आपवामां आवी छ। * मन्यते यो जगत्तत्त्वं स मुनिः परिकीर्तितः। -श्री ज्ञानसार अष्टक, मौनाष्टक. . (r) जुओ, उपा. श्री यशोविजयजी कृत 'धर्मपरीक्षा'। . .