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________________ प्रस्तावना 41 में व्यतीत किया और अन्तमें उड़ीसा के जंगल में एकान्त में मृत्युको प्राप्त हुए। दिग्नाग के जीवन की इन घटनाओं का उल्लेख लामा तारानाथ ने किया है।' दिग्नाग के न्याय के ग्रन्थ ये हैं-प्रमाणसमुच्चय, प्रमाणसमुच्चयवृत्ति, हेतुचक्रसमर्थन, न्यायद्वार-न्यायमुख, आलम्बनपरीक्षा, आलम्बनपरीक्षावृत्ति और त्रिकालपरीक्षा / दिग्नाग के प्रमाणसमुच्चय से पूर्व जितने भी बौद्धन्याय के ग्रन्थ लिखे गए उनमें प्रमाणविचार गौण है या बिलकुल नहीं, किन्तु वाद-विवाद से संबद्ध विषयों का ही अधिक निरूपण है। वादविधि या वादविधान, उपायहृदय, तर्कशास्त्र, न्यायमुख ये प्रन्थ मुख्यतः जाति और निग्रहस्थान का निरूपण करते हैं और वाद के गुणदोषों का तथा खण्डन-मण्डन की प्रक्रिया का वर्णन करते हैं। नागार्जुन की विग्रहव्यावर्तिनी तो प्रमाण के सामर्थ्य के विषय में ही प्रश्न उपस्थित करके प्रमाण को कुछ भी सिद्ध करने में असमर्थ बताती है। इतना ही नहीं, ब्राह्मण दर्शनोंमें भी न्यायसूत्र को हम प्रधानतया प्रमाणशास्त्र का ग्रन्थ नहीं कह सकते ; क्योंकि उसमें भी वादसंबद्ध विषयों ने ही अधिकांश रोक रखा है। और न्यायसूत्र के बाद भी ऐसा कोई स्वतंत्र ग्रन्थ दिग्नागपूर्व नहीं बना जिसमें शुद्ध प्रमाणों की चर्चा हो। ऐसी परिस्थिति में मध्यकालीन भारतीय न्यायशास्त्र के पिता का पद दिग्नाग को विद्वानों ने दिया है वह उनके व्यक्तित्व का पूरा परिचायक है। दिग्नाग ही सर्व प्रथम है जिन्होंने प्रमाणशास्त्र को पृथक् शास्त्र का रूप प्रदान किया है। अतएव भारतीय प्रमाणशास्त्र के पिता दिग्नाग हैं। इस प्रकार दिग्नाग जब भारतीय प्रमाणशास्त्र के पिता हैं तो बौद्धों के प्रमाणशास्त्र के वह पिता या प्रस्थापक बने इसमें तो कोई संदेह को स्थान ही नहीं। . दिग्नागने जब एक नया मार्ग अंकित कर दिया तब उनके मार्गका अनुगमन बौद्ध और बौद्धतर दर्शनोंमें हआ। स्वयं दिग्नागके शिष्य शंकरस्वामी ने दिग्नागके प्रमाणसमुच्चयादि ग्रन्थों के साररूपसे न्यायप्रवेश लिखा। धर्मकीति के गुरु धर्मपाल ने दिग्नाग के आलम्बनपरीक्षा ग्रन्थ की व्याख्या को। जिनेन्द्रबुद्धि ने प्रमाणसमुच्चय की टीका विशालामलंवती लिखी। ईश्वरसेन ने भी प्रमाणशास्त्र का कोई स्वतंत्र या व्याख्या ग्रन्थ अवश्य लिखा होगा, क्योंकि उनके सिद्धान्तों का खण्डन धर्मकीति ने किया है। कहा जाता है कि धर्मकीर्ति ने प्रमाणसमुच्चय का अध्ययन ईश्वरसेन से ही किया था। इस प्रकार दिग्नाग की परंपरा को उनकी शिष्य परंपरा में आगे बढ़ाया गया, किन्तु दिग्नाग की इस परंपरा में धर्मकीर्ति ऐसे हए जिन्होंने प्रमाणसमुच्चय की टीका प्रमाणवातिक नाम से लिखी। यह व्याख्या उद्द्योतकर के न्यायवार्तिक की तरह व्याख्येय ग्रन्थ से भी महत्त्वपूर्ण . हुई। परिणाम यह हुआ कि उसके बाद सर्वत्र धर्मकीर्ति के प्रमाणवातिक और उनके अन्य ग्रन्थों का ही अध्ययन-अध्यापन बढ़ा। अन्य दार्शनिकों ने भी बौद्ध सिद्धान्तों के ' S. Vidyabhusana : History of Indian Logic p. 212; तत्त्वसंग्रह प्रस्तावना पृ० 74. 2 Dhruva's : Nyayaprave'sa, Introduction, P. XIII. . 3 Vidyabhusana : History of Indian Logic, P. 307. 6
SR No.004317
Book TitleDharmottar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherKashiprasad Jayswal Anushilan Samstha
Publication Year1956
Total Pages380
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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