________________ विजयजी (मुनिश्री गुणविजयजीना शिष्य ) पण समाधिपूर्वक कालधर्म पाम्या, उपरोक्त सद्गत सर्व मुनिओनी संयमनी आराधना हजी स्मृतिपट उपर अंकित छे. __तेओश्रीना शिष्यरत्न पनयासप्रवर श्रीप्रियंकरविजयजी गणी संयमनी सुंदर आराधना करवा पूर्वक भव्यात्महृदयआकर्षक जिनागम उपदेश द्वारा शासननी शोभा वधारी रहा छे. तेओश्रीना प्रशिष्यो ( माग शिष्यो ) तपस्वी मुनिश्री शान्तिप्रभविजयजी, रत्नाकर-विजयजी, बालमुनि श्रीहरिभद्रविजयजी तथा सुबोधविजयजी उपर तेओश्रीनो कदि न भूली शकाय तेवो उपकार छे. बाल्य-वयथी ज मने धर्मप्रेरणा करीने श्रीगुरुदेवे मारु जीवन सार्थक कयु. पगले पगले पथदर्शक बनता मारा श्रीगुरुदेवनो उपकार व्यक्त करवा मारी पासे तेवा शब्दो नथी कठिण षड्दर्शनशास्त्रनो तलस्पर्शी अभ्यास करीने अल्पसमयमां ज तेओश्रीए परमोपकारी प. पाद श्रीगुरुभगवंत नी कृपादृष्टिथी स्वपरसिद्धांतनी अपूर्व विद्वत्ता प्राप्त करी, तेना परिणामस्वरूप अतिउत्तम कोटीनी आ कृति जोईने हुं अत्यंत हर्ष अनुभवू छु.प. गुरुमहाराजश्रीनी मारा पर खूबज कृपा छे. ए माटे हुं तेओश्रीनो अति ऋणी छु तेओश्रीनो मारा परत्वे हरहमेश कृपाप्रसाद वरसतो रहे, ए शुभ-अभिलाषा पर्वक विरमुं छु” / आ ग्रन्थना मुद्रणादि सकलकार्यमां पूज्य पक्ष्यासजीमहाराज श्रीधुरन्धरविजयजी गणि महाराजनो पूर्ण सहयोग अमने अतिशय साधक थयो छे. आ ग्रन्थ मूलमात्र श्रीयशोविजय-जैन ग्रन्थमाला ना 20 मा ग्रन्यांक रूपे वीरसंवत् 2437 मां अर्थात् आजयी 40 वर्ष पूर्वे वाराणसीयो हर्षचन्द्र भूराभाई श्रेष्ठिए प्रकाशित कर्यो हतो. आ ग्रन्थना 19 सर्ग छे तेमांथी चार सर्ग सुधी आ विभागमा टीका साथे मुद्रित थएलछे. क्राउन आठ पेजी जेवा मोटा कदमां 300 पृष्ठनो दलदार आ ग्रन्थ थयो छे, हवे पछीना 15 सर्गो शक्य थशे तो बोजा भागमा एकसाथे मुद्रित कराववानी अमारी पूर्ण इच्छा छे. ___ आ ग्रन्थनुं अध्ययन अध्यापन वधे अने ते द्वारा व्युत्पत्ति साथे सम्यग्ज्ञाननी अभिवृद्धि थाय एवी इच्छा साथे श्रीसंघना आशीर्वादनी मांगणी करवा पूर्वक आवा विशिष्ट ग्रन्थने प्रसिद्ध करवानुं सौभाग्य अमने प्राप्त थयु ए अंगे अमे अमारु अहोभाग्य मानीए छीए. लि. पालीताणा ता० 9-5-1961 भी श्रमणसंघसेवक चुनीलाल उकाभाई झवेरी