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________________ 47 स्वरान्ता: पुल्लिङ्गाः _ संख्याया: ष्णान्ताया: कतेश्च परयोर्जस्शसोलुंग्भवति / (सर्वविधिभ्यो लोपविधिर्बलवान्) प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणमिति प्राप्ते सति। लुग्लोपे न प्रत्ययकृतम्॥१७५ // लुगिति लोपे सति प्रत्ययलोपे परे यत्कृतं कार्यं प्रकृतेस्तन्न भवति / इरेदुरोज्जसीत्येत्वं न भवति / कति / कति / कतिभिः / कतिभ्यः / कतिभ्यः / कतीनाम् / कतिषु / सखिशब्दस्य तु भेदः / सावनन्तः इति वर्तते। सख्युश्च // 176 // सख्युरन्तोऽन् भवति असम्बुद्धौ सौ परे / . घुटि चासम्बुद्धौ // 177 // नान्तस्य चोपधाया दीर्घा भवति असम्बुद्धौ घुटि परे। व्यञ्जनाश्च // 178 // व्यञ्जनाच्च पर: सिर्लोपमापद्यते / लिङ्गान्तनकारस्य // 179 // लिङ्गान्तनकारस्य लोपो भवति विरामे व्यञ्जनादौ च / सखा / [सभी विधि में लोप विधि बलवान् है] यहाँ “प्रत्यय लोपे प्रत्यय लक्षणं" इस सूत्र से कुछ कार्य जिसमें गुण शस् में दीर्घ प्राप्त था उसे बाधित करने के लिए सूत्र लगता है। लुक् इस शब्द से प्रत्यय के लोप करने पर प्रत्यय के निमित्त से प्रकृति का जो कार्य होता था वह नहीं होगा // 175 // जैसे 'इसेदुरोज्जसि' सूत्र से यहाँ इ को ए प्राप्त था वह नहीं होगा क्योंकि लुक् शब्द से जस् शस का लोप किया गया है। अत: जस् शस् का लोप होकर कति+ जस्=कति ही रहा। कति / कति / कतिभि: / कतिभ्यः / कतिभ्यः / कतीनाम् / कतिषु। सखि शब्द में कुछ भेद हैं। 'सावनंत' यह सत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है। सखि+सि है। संबोधन से रहित 'सि' विभक्ति के आने पर सखि शब्द के अंत 'इ' को अन् आदेश हो जाता है // 176 // तब सखन् + सि हो गया। असंबुद्धि घुट सि विभक्ति के आने पर नकार की उपधा को दीर्घ हो जाता है // 177 // तब सखान् + सि व्यंजन से परे सि विभक्ति का लोप हो जाता है // 178 // विराम और व्यंजन के आने पर लिंगांत नकार का लोप हो जाता है // 179 // अत: सखा बना। सखि + औ है।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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