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________________ दो-तीन दिन पण्डितजी ने पढ़ाया, किन्तु मुझे गति से सन्तोषं नहीं हुआ। तब विशालमतीजी के आग्रह से आचार्य श्री ने दूसरे पण्डितों को बुलाया, वे भी ऐसे ही असफल रहे तब पण्डित इन्द्रलालजी आदि कई महानुभावों ने विचार किया कि___ “इन्हें तो व्याकरण पढ़ने की भस्मक व्याधि है सो कोई ब्राह्मण विद्वान् जो कि अतिप्रौढ़ हो जिसे व्याकरण कंठाग्र हो और जो पचास सूत्र पढ़ाकर भी न थके ऐसा विद्वान् ढूँढकर लाना चाहिए।" / ____ उस समय जैन कालेज में कातन्त्ररूपमाला व्याकरण को पढ़ाने वाले एक ब्राह्मण विद्वान् दामोदर शास्त्री थे। उन्हें बुलाया गया और आचार्य श्री के सामने उनका परिचय दिया गया। पण्डित इन्द्रलालजी बोले __ "महाराजजी ! ये पण्डितजी ही इन्हें व्याकरण पढ़ा सकते हैं क्योंकि इन्हें व्याकरण के सारे सूत्र कंठाग्र हैं। रात-दिन यही व्याकरण ये पढ़ाते हैं।" तभी आचार्य श्री ने मुझे बुलाया और विनोदपूर्ण शब्दों में बोले “वीरमती ! देखो, ये विद्वान् दामोदर शास्त्रीजी तुम्हें व्याकरण पढ़ायेंगे। यह कातन्त्ररूपमाला नाम की व्याकरण यहाँ जैन कालेज में दो वर्ष का कोर्स है लेकिन हाँ, तुम्हें दो महीने में पूरी कर लेनी मैंने प्रसन्नता से कहा "हाँ, महाराजजी ! जैसी आपकी आज्ञा है वैसा ही करूँगी, मैं तो दो महीने से एक दिन कम में ही पूरी कर लूँगी।" इसी बीच पण्डित दामोदरजी बोले- “पूज्य महाराजजी ! मैं प्रतिदिन एक घण्टे समय दे सकता हूँ इससे अधिक नहीं, चूँकि मेरे पास अधिक समय ही नहीं है।" विशालमती माताजी ने कहा “ठीक है पण्डितजी ! आप कल से ही इनकी व्याकरण शुरू कर दीजिए। मुझे भी व्याकरण की रुचि है साथ ही मैं भी अध्ययन करूंगी।" दूसरे दिन से कातन्त्ररूपमाला का अध्ययन शुरू हो गया। पण्डितजी दामोदरजी सूत्र बोलते उसका अर्थ कर देते पुन: संधि तथा रूपसिद्धि आदि करना बता देते / मैं सुनती रहती सब समझ लेती, किसी दिन शायद ही दूसरी बार व्याकरण हाथ में उठाई हो उसी समय जो मनन हो जाता था सो ठीक, दूसरे दिन यदि पण्डितजी कोई संधि या रूप पछ लेते तो मैं विधिवत सत्रोच्चारण कर बता देती। विशालमती माताजी भी आश्चर्य से कहा करतीं “अम्मा ! तुमने पूर्वजन्म में व्याकरण पढ़ी है ऐसा प्रतीत होता है यही कारण है कि एक पाठी के समान तुम्हें व्याकरण याद हो जाती है पुन: पुन: दिन भर रटना नहीं पड़ता है।" मुझे भी स्वयं ऐसा लगता था कि वास्तव में जैसे मैंने इस पुस्तक को कभी पढ़ा हो / यही कारण है कि मुझे न तो वह व्याकरण कठिन महसूस होती न लोहे के चने लगती। मैं सोचा करती “भला विद्वान् लोग व्याकरण को लोहे का चना क्यों कहते हैं ?" . उस समय कातन्त्र व्याकरण की मूल प्रति बड़ी मुश्किल से 1-2 मिली थी एवं मुझे भी उस व्याकरण की सरलता तथा जैनाचार्यों की कृति होने से बहुत ही प्रेम हो गया था अत: मेरी इच्छा व क्षु० विशालमती माताजी की प्रेरणा और गुरुदेव आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज की आज्ञा से श्री (5)
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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