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________________ स्वरान्ता: पुल्लिङ्गः 43 पञ्चादौ घुट // 159 // स्यादीनामादौ पञ्चवचनानि घुट्संज्ञानि भवन्ति / आधातोरघुट्स्वरे // 160 // धातोराकारस्य लोपो भवति अघुट्स्वरे परे / धातोरिति किम् / शन्तृङन्तक्किबन्तौ धातुत्वं न त्यजत इति / एतदुपलक्षणम् / उपलक्षणं किं / स्वस्य स्वसदृशस्य च ग्राहकमुपलक्षणं / तेन विजन्तमपि धातुत्वं न जहाति / क्षीरप: / क्षीरपा। क्षीरपाभ्याम् / क्षीरपाभि: / क्षीरपे। क्षीरपाभ्याम् / क्षीरपाभ्य: / क्षीरप: / क्षीरपाभ्याम् / क्षीरपाभ्य: / क्षीरप: / क्षीरपोः / क्षीरपाम् / क्षीरपि / क्षीरपोः / क्षीरपासु / एवं सोमपा सीधुपा कीलालपा सौवीरपा मण्डपा अग्रेगा विवस्वा अब्जजा उदधिका 'ह | उदधिका 'हाहा पुरोगादयः / इत्याकारान्ताः / इकारान्त: पुलिङ्गो मुनिशब्दः / तत: स्याद्युत्पत्ति: / सौ। मुनिः। द्वित्वे। इदुदग्निः // 161 // सि आदि विभक्तियों में आदि की पाँच विभक्तियाँ 'घुट' संज्ञक हैं // 159 // इस सूत्र से सि औ जस् अम् औ को घुट संज्ञा हो गई। बाकी सब अघुट हैं। इन अघुट में शस्, टा, डे, ङसि, ङस्, ओस्, आम्, ङि, ओस् ये नव विभक्तियाँ स्वर वाली हैं। ____ एवं भ्याम् भिस् भ्याम् भ्यस् भ्याम् भ्यस् और सुप् ये 7 विभक्तियाँ व्यंजन वाली हैं। अघुट् स्वर वाली विभक्तियों के आने पर धातु के आकार का लोप हो जाता है // 160 // . 'यहाँ धातु के आकार ऐसा क्यों कहा ? यहाँ क्षीरं पिबतीति क्षीरपा इस प्रकार से क्षीर शब्द से पा धात आकर कृदंत में क्विप प्रत्यय हआ है और क्विप का सर्वापहारी लोप हो गया है, फिर भी शतृङ् प्रत्यय जिसके अंत में है एवं क्विप् जिनमें अंत में है ऐसे शब्द लिंग संज्ञक हो गये हैं फिर भी अपने धातुपने को नहीं छोड़ते हैं। यह कथन यहाँ उपलक्षण मात्र है। उपलक्षण किसे कहते हैं ? अपने और अपने सदृश को ग्रहण करने वाले को उपलक्षण कहते हैं। उससे 'विच्' प्रत्यय भी जिनके अंत में है ऐसे शब्द भी धातुपने को नहीं छोड़ते हैं ऐसा समझना चाहिए। अब यहाँ क्षीरपा + अस् में क्षीरपा के आ का लोप होकर क्षीरप् + अस-क्षीरप: बन गया। क्षीरपा+टा, क्षीरप्+ आ = क्षीरपा, क्षीरपाभ्याम, क्षीरपा+डे, क्षीरप् + =क्षीरपे। क्षीरपा+ ङसि = क्षीरपः, क्षीरपा+ ङस् = क्षीरपः, क्षीरपा+ ओस् = क्षीरपोः, क्षीरपा+आम् = * क्षीरपाम्, क्षीरपा+ङि= क्षीरपि इत्यादि व्यंजन वाली विभक्तियों के आने पर कुछ भी अंतर नहीं होता है। क्षीरपाः क्षीरपौ क्षीरपाः / क्षीरपे क्षीरपाभ्याम् क्षीरपाभ्यः हे क्षीरपाः ! हे क्षीरपौ ! हे क्षीरपाः ! क्षीरपः क्षीरपाभ्याम् क्षीरपाभ्यः क्षीरपाम् क्षीरपौ क्षीरपः क्षीरपोः क्षीरपाम् क्षीरपा क्षीरपाभ्याम् क्षीरपाभिः | क्षीरपि क्षीरपोः क्षीरपासु इसी प्रकार से आकारांत सोमपा, सीधुपा, कोलालपा, सौवीरपा, मंडपा, अग्रेगा, विषस्वा अब्जजा उदधिका, हाहा, पुरोगा आदि शब्द क्षीरपावत् ही चलते हैं। इस प्रकार से आकारांत शब्दों के रूप हुए। अब इकारांत मुनि शब्द से सि आदि विभक्तियाँ आती हैं। मुनि + सि = मुनि: / द्विवचन में—मुनि + औ इकारांत और उकारांत लिंग को अग्नि संज्ञा हो जाती है // 161 // 1. जहतीति हाहा इति वयुत्पत्तिपक्षे, न तु गन्धर्ववाचीति पक्षे / क्षीरपः
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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