________________ कातन्त्ररूपमाला तुंबुरुं तृणकाष्ठं च तैलं जलमुपागतम्। स्वभावादूर्ध्वमायाति रेफस्यैतादृशी गतिः / / 1 / / इति जलतुम्बिकान्यायेन रेफस्योर्ध्वगमनं / शिडिति शादयः॥३३॥ शषसहा वर्णाः शिट्संज्ञा भवन्ति / तवारः। सक्करिण। ऋण ऋणम्। प्र ऋणम्। वसन ऋणम् / वत्सतर ऋणम् / कम्बल ऋणम् / दश ऋणम् / इति स्थिते / ऋणप्रवसनवत्सतरकम्बलदशानामृणेऽरो दीर्घः // 34 // ऋणादीनां अरो दीर्घा भवति ऋण परे / एकदेशविकृतमनन्यवत् / ऋणार्णम् / प्रार्णम् / वसनार्णम् / वत्सतरार्णम् / कम्बलार्णम् / दशार्णम् // शीत ऋत: / दुःख ऋत: / इति स्थिते। ऋते च तृतीयासमासे // 35 // तृतीयासमासे अरो दीर्घा भवति ऋते च परे। शीतेन ऋत: शीतार्त: / दुःखेन ऋत: दुःखार्तः / तृतीयासमास इति किम् ? परमश्चासौ ऋतश्च परमतः // तव लकारः / सा लूकारेण / इति स्थिते। श्लोकार्थ-तुंबरु, तृण, लकड़ी और तेल ये जल में पड़ने के बाद स्वभाव से ही ऊपर आ जाते हैं उसी प्रकार रेफ की भी यही अवस्था है। इस प्रकार 'जल तुम्बिका' न्याय से रेफ वर्ण के मस्तक पर चढ़ जाता है जैसेतवरिः , प्र अ कार:=प्रकारः / पुन: इस तवार: में एक सूत्र लगता है श, ष, स, ह इन चार वर्णों की 'शिट्' संज्ञा है // 33 // तवारः, स् अर् क्कारेण = सक्करिण बन गया। ऋण+ऋणम्, प+ऋणम् इत्यादि सूत्र लगा 'ऋवणे अर्' इस सूत्र से ऋण अर् + णम् आदि बन गये। पुन: ३४वां सूत्र लगा। ऋण से परे ऋण और प्र, वसन, वत्सतर, कम्बल और दश इनके अर् को दीर्घ हो जाता है // 34 // तब-ऋण आर् ऋणम् = ऋणार्णम्, प्र आर् + णम् = प्रार्णम्, वसन् आर् + णम् = वसनार्णम्, वत्सतरार्णम्, कम्बलार्णम्, दशार्णम् / शीत + ऋत:, दुःख + ऋतः / इसमें समास का प्रकरण है तो इनका विग्रह-शीतेन ऋत: / शीत टा स्थित है समास के प्रकरण में “तत्स्थालोप्या विभक्तयः” सूत्र से 'टा' विभक्ति का लोप होकर 'शीत + ऋत:' स्थित है। “ऋवणे अर्” इस सूत्र से शीत अर्+त: बन गया। पुन: सूत्र लगातृतीया समास के प्रकरण में ऋवर्ण के आने पर अर् को दीर्घ हो जाता है // 35 / / तब शीतार्त: दुःखार्त: बना। यहाँ 'तृतीया समास में ऐसा क्यों कहा ? कर्मधारय समास में अर् को दीर्घ नहीं होता है जैसे—परमश्चासौ ऋतश्च / परम+ ऋत:= परमर्त: बन गया। तव+लकारः सा+लकारेण /