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________________ कातन्त्ररूपमाला ऊष्माणः शषसहाः॥१७॥ ऊष्म उष्णं धर्ममुत्पादयन्तीति ऊष्माणः / शषसहा इत्येते वर्णा ऊष्मसंज्ञा भवन्ति / शषसह / अः इति विसर्जनीयः॥१८॥ . येन विना यदुच्चारयितुं न शक्यते स उच्चारणार्थो भवति / अकार इहोच्चारणार्थः / यथा कादिषु / कुमारीस्तनयुगलाकृतिवणों विसर्जनीयसंज्ञो भवति। शृङ्गवद्वालवत्सस्य कुमारीस्तनयुग्मवत्। नेत्रवत्कृष्णसर्पस्य विसर्गोऽयमिति स्मृतः // 1 // ' के इति जिह्वामूलीयः // 19 // ककार इहोच्चारणार्थ: वज्राकृतिवर्णो जिह्वामूलीयसंज्ञो भवति / के // __प इत्युपध्मानीयः // 20 // पकार इहोच्चारणार्थ: / गजकुम्भाकृतिवर्ण उपध्मानीयसंज्ञो भवति / 5 / / श, ष, स, ह अक्षर ऊष्म संज्ञक हैं // 17 // उष्ण धर्म को उत्पन्न करने वाले को 'ऊष्म' कहते हैं अर्थात् इनके उच्चारण काल में मुख से कुछ उष्ण वायु निकलती है। “अ” यह विसर्ग कहलाता है // 18 // जिसके बिना उच्चारण न किया जा सके वह उच्चारण के लिये होता है / यहाँ विसर्ग को बतलाने के लिये 'अकार' शब्द उच्चारण के लिये है। जैसे क: आदि में 'क' शब्द उच्चारण के लिये रहता है। यह विसर्ग सभी स्वर और व्यंजन में लगाया जाता है। कुमारी कन्या के स्तन युगल की आकृति वाला जो वर्ण है वह विसर्ग संज्ञक है। श्लोकार्थ-बाल बछड़े के छोटे-छोटे सींग के समान, कुमारी कन्या के स्तन युगल के समान और काले सर्प की दोनों आँखों के समान यह विसर्ग माना गया है। 'क' यह वर्ण जिह्वामूलीय कहलाता है // 19 // . यहाँ ककार उच्चारण के लिये है मतलब वज्राकृति वर्ण जिह्वामूलीय संज्ञक होता है। 'क' 'प' यह उपध्मानीय संज्ञक है // 20 // यहाँ 'प' शब्द उच्चारण के लिये है मतलब गजकुंभाकृति वर्ण को उपध्मानीय संज्ञा है। १.विसृज्यते विरम्यते येन स विसर्गः। 2. जिह्वामूले भवो जिह्वामूलीयः। 3. उप समीपे ध्यायते शब्दायते इति उपध्मानीयः। 1. क के पीछे अर्ध चन्द्राकार जैसे,क करोति / 2. प से पहले गज कुम्भाकृति जैसे क)(पठति /
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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