________________ 358 कातन्त्ररूपमाला युट्च / / 770 // नपुंसके भावे युट् भवति / गमनं / हस हसने / हसनं / शयनं / यजनं / करणाधिकरणयोश्च // 771 // करणेऽधिकरणे च युट् भवति / ओवश्च च्छेदने इध्मानि प्रकर्षेण वृश्च्यन्ते अनेन अस्मिन्निति वा इध्मप्रव्रश्चनः / गौ: दुहते अनयाऽस्यामिति गोदोहनी सक्तूनि धीयन्ते सक्तुधानी स्थानं / आसनं / यानं / यजनं। पुंसि संज्ञायां घः // 772 // करणाधिकरणयोश्च पुंसि संज्ञायां घो भवति। छादेर्थे स्मन्त्रन्क्विप्सु च // 773 // छादेः ह्रस्वो भवति ध इस् इन् वन् क्विप् एषु परत: / छद षद संवरणे। उर: छाद्यते अनेनेति उरश्छदः / एवं दन्तच्छदः। अचिंशुचिरुचिहुपिछादिछर्दिभ्य इस्॥७७४॥ एभ्य इस् भवति / अर्चिः / शोचिः / रोचि: / हवि: / सर्पिः / छदिः / छर्द वमने / छर्दिः। सर्वधातुभ्यो मन् // 775 // छया। छदिगमिपदिनीभ्यस्त्रन् / / 776 // एभ्यः परः त्रन् प्रत्ययो भवति / छाद्यते अनेनेति छत्रं / क्विम् / तनुच्छत् / कुर्वन्ति अनेनेति करः / शृण्वन्त्यनेनेति श्रवः / ली श्लेषणे। लीयन्ते अस्मिन्निति लयः। भाव अर्थ में नपुंसकलिंग में 'युट्' होता है // 770 // गमनं हसनं इत्यादि यु को अन हुआ है। करण और अधिकरण अर्थ में 'यूट' होता है // 771 // ओ वश्च–छेदना। इध्यानि प्रकर्षेण वृश्च्यते अनेन अस्मिन्निति वा इध्म प्रवृश्चनः / गो दुही जाती है जिसके द्वारा अथवा जिसमें वह-गोदोहनी / सक्तूनि धीयंते अस्यां सक्तुधानी / स्था अन = स्थानं, आसनं, यानं यजनं। करण अधिकरण में संज्ञा अर्थ में पुल्लिंग से 'घ' प्रत्यय होता है // 772 // घ इस् इन् त्रन् क्विप् प्रत्यय के आने पर 'छाद' को ह्रस्व होता है // 773 // छद षद-संवरण करना / उर: छाद्यते अनेनेति-उरश्छदः दन्तच्छदः / अर्च, शुच् रुच हु सुप् छाद् और छर्दि से 'इस्' प्रत्यय होता है // 774 // अर्चिस् रोचिस् शोचिस् हविस् मर्फिस् छदिस् छर्दिस् लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में अर्चि: रोचि: शोचि: आदि बनेंगे। सभी धातुओं से 'अन्' प्रत्यय होता है // 775 // छअन् = छा। छद् गम् पद और नी से 'बन्' प्रत्यय होता है // 776 // छाद्यते अनेन इति छत्र। क्विप्-तनुं छादयति इति तनुच्छत् / 'घ' प्रत्यय से-कुर्वति अनेनेति करः शृण्वंत्यनेनेति श्रवः / लीङ्–श्लेषण करना लीयंते अस्मिन्निति लयः /