SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 322 कातन्त्ररूपमाला हन्तेर्नकारस्य तो भवति ऋणानुबन्धे प्रत्यये परे / हस्य हन्तेपिरिणिचोः। घातकः / हन्ता। हन हिंसागत्योः / आथिरिच्यादन्तानां / दायक: / दाता / अवसायक: / अवसाता / गायक: / गाता। नसेटोऽमन्तस्यावमिकमिचमाम्॥५६१॥ सेटोऽमन्तस्य वमिकमिचमिवर्जितस्य इचि कृतं कार्यं न भवति णानुबन्धे कृति परे / शमक: शमिता। दमक: दमिता। यमक: यमिता। अच् पचादिभ्यश्च // 562 // पचादिभ्यः अच् भवति / सर्वे धातव: पचादिषु पठ्यन्ते / पच: पठ: कर: देवः / नन्द्यादेर्युः // 563 // नन्द्यादेर्युर्भवति सर्वे धातवो नन्द्यादौ पठ्यन्ते / नन्दतीति नन्दनः / रम क्रीडायां रमणः / राध साध संसिद्धौ / राधन: साधनः। ग्रहादेर्णिन् // 564 // ग्रहादेर्गणात् णिन् भवति / सर्वे धातव: ग्रहादौ पठ्यन्ते / ग्राही ग्राहिणौ ग्राहिणः / स्थायी मायी. ' श्रावी। नाम्युपधात्तीकृगृज्ञां कः // 565 // नाम्युपधात् प्रीणाते: किरतेगिरतेर्जानातेश्च को भवति। क्षिप प्रेरणे। विक्षिपः। लिख विलेखने विलिख: / क्रुश: / प्रीब् तर्पणे कान्तौ च / प्रिय: उत्किरः / ___ 'हस्य हन्तेषिरिणिचो:' 367 सूत्र से इण् इच् के आने पर हन् के हकार को घकार हो जाता है इस नियम से घातकः, हन्ता। दा धा 'आयिरिच्यादतानां' ३६४वें सूत्र से आय होकर दायक: धायक: दाता धाता बना। वम् कम् चम् को छोड़कर इट् सहित अम् अन्त वाली धातु से ञ् णानुबन्ध कृदन्त प्रत्यय के आने पर इच् प्रत्यय से कहा गया कार्य नहीं होता है // 561 // शमक: शमिता, दमक: दमिता, यमक: यमिता। पचादि धातु से 'अच्' प्रत्यय होता है // 562 // पचादि शब्द से सभी धातुयें ली जाती हैं पच् अ= पच: पठ: कर: देव: इत्यादि / ___ नन्द्यादि से 'यु' प्रत्यय होता है // 563 // नद्यादि से सभी धातुयें पढ़ी जाती हैं। 'युवुलामनाकान्ता:' ५५९वें सूत्र से यु को अन हो जाता है। नन्दतीति = नन्दनः / रमु-क्रीड़ा करना = रमण: / राध् सा–सिद्धि अर्थ में हैं। राधनः, साधनः / ग्रहादि गण से णिन् प्रत्यय होता है // 564 // ग्रहादिगण में सभी धात लिये जाते हैं। ग्रह-णिन हआणानबंध से वद्धि होकर ग्राहिन बना = ग्राही ग्राहिणौस्था मा से आय होकर णिन् हुआ है एवं श्रुको वृद्धि हुई है स्थायी मायी श्रावी बनेंगे। नामि उपधा वाले और प्री कृ गृ और ज्ञा से 'क' प्रत्यय होता है // 565 // क्षिप–प्रेरणा = विक्षिप: क् अनुबन्ध होकर 'अ' रहता है। लिख = विलिख: क्रुश् = क्रुशः / प्री-तर्पण करना और चमकना / ई को इय् होकर 'प्रिय:' बना। कृ अ 'ऋदन्तस्येरगुणे' सूत्र 199 से इर् होकर किर: उत्किरः।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy