________________ 316 कातन्त्ररूपमाला नाम्नि उपपदे वद: क्यप् भवति यश्च / सप्तम्युक्तमुपपदम्॥५२३॥ धात्वधिकारे सप्तम्या निर्दिष्टमुपपदसंज्ञं भवति / तत्राङ्नाम चेत् // 524 // तदुपपदं नाम चेद्धातोः प्राग्भवति / तस्य तेन समासः॥५२५॥ तस्य नामोपपदस्य तेन कृदन्तेन सह समासो भवति / ब्राह्मणो वदनं अथवा ब्रह्मणा उच्यते ब्रह्मोद्यं ब्रह्मवद्यु। भावे भुवः॥५२६ // नाम्नि उपपदे भुवो धातो: क्यप् भवति भावे / ब्रह्मभूयं गतः ब्रह्मत्वं गत इत्यर्थः। .. हनस्त च // 527 // नाम्नि उपपदे हन्ते: क्यप् भवति नस्य तकारादेशो भवति / ब्रह्महत्या। अश्वहत्या। वृदृजुषीशासुत्रगुहां क्यप्॥५२८॥ एषां क्यप् भवति / पुन: क्यप् ग्रहणं अधिकारनिवृत्यर्थं / तेन नाम्नि भावे चेति निवृत्त्यर्थं / धातोस्तोन्तः पानुबन्धे // 529 / / ह्रस्वान्तस्य धातोस्तोऽन्तो भवति पानुबन्धे कृति परे / वृत्यं दृत्यं / जुषी प्रीतिसेवनयो: जुष्यते इति जुष्यं / इत्य: / शासु अनुशिष्टौ // शासेरिदुपधाया इत्यादिना आकारस्य इत्वं / शिष्य: / स्तुत्यः / गुह्यः / धातु के अधिकार में सप्तमी से निर्दिष्ट पद 'उपपद' संज्ञक होता है // 523 // यदि उपपद नाम है तो धातु के पहले होता है // 524 // उस नाम उपपद का उस कृदन्त के साथ समास होता है // 525 // ब्रह्मण: वदनं अथवा ब्रह्मणा उच्यतेब्रह्मा का कथन अथवा ब्रह्मा के द्वारा कहा गया है। वह ब्रह्म-उद्यं = ब्रह्मोद्यं, ब्रह्मवद्यं / नाम उपपद से भाव अर्थ में भू धातु से क्यप् प्रत्यय होता है // 526 // ब्रह्मभूयं गत:-अर्थात् ब्रह्मत्व को प्राप्त हो गया। नाम उपपद में हन् धातु से क्यप् प्रत्यय होता और नकार को तकार होता है // 527 // ब्रह्माणं हन्ति इति ब्रह्महत्या, अश्वहत्या। इसका विग्रह भी होता है। ब्राह्मणो हननं इति / वृञ् दृ जुष इण् शास् स्तु गुह् धातु से क्यप् प्रत्यय होता है // 528 // ' अधिकार निवृत्ति के लिए यहाँ पर पुन: क्यप् का ग्रहण किया है। इसमें 'नाम और भाव में ' इसकी भी निवृत्ति हो जाती है। पानुबंध कृत्प्रत्यय के आने पर ह्रस्वान्त धातु के अंत में 'त' होता है // 529 / वृक्-वृत्यं / दृ-दृत्यं, जुषी-प्रीति और सेवन करना जुष्यं, इण् से इत्य: शास्"शासेरिदुपधाया” इत्यादि सूत्र से आकार को 'इ' होकर शासि वशि, से ष होकर शिष्यः, स्तुत्य:, गुह्यः /