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________________ कृदन्त: आनोऽत्रात्मने // 497 // अत्र आन: प्रत्यय आत्मनेपदं भवति / आन्मोन्त आने // 498 // अकारान्तान्मकारागमो भवति आने परे // एधमान: पुत्र: / एधमाना लक्ष्मीः / एधमानं कुलं / तथा पचन् पचन्ती पचत् / पचमान: पचमाना पचमानमित्यादि / अदन् अदन्ती अदत् / शयान: शयाना शयानं / __ढे न गुणः // 499 // नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोर्गुणो न भवति ङानुबन्धे कृति परे / ब्रुवन् बुवाण: / जुह्वत् जुह्वान: / दधत् दधानः / दीव्यन् / सूयमान: / सुन्वन् सुन्वानः / अश्नुवान: // सर्वेषामात्मने इत्यादिना गुणो न भवति / चिन्वन् चिन्वान: / भावे / भूयमानं देवदत्तेन / एध्यमानमस्माभि: / भावे सर्वत्र नपुंसकलिङ्गत्वं एकत्वं च / कर्मणि / पच्यमान ओदनः / पच्यमानौ ओदनौ / पच्यमाना: ओदना: / क्रियमाण: कट इत्यादि / होकर भव अत् रहा। 'असंध्यक्षरयोरस्य तौ तल्लोपश्च' सूत्र 26 से अकार का लोप होकर 'भवन्त्' बना ‘कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र 423 से लिंग संज्ञा होकर व्यञ्जनान्त पुल्लिंग में 'भवत्' बन गया। स्त्रीलिंग में 'नदाद्यञ्च वाह' इत्यादि सूत्र 372 से 'ई' प्रत्यय होकर भवन्ती बन कर लिंग संज्ञा होकर स्वरांत स्त्रीलिंग में नदी के समान रूप चलेगा। एवं नपुंसक लिंग में 'भवेत्' बनेगा। लोकोपचार से आनश् और आनङ् प्रत्यय आत्मनेपद में होते हैं। .. - यहाँ आन प्रत्यय आत्मनेपद में होता है // 497 // आन प्रत्यय के आने पर अकारांत शब्द से मकार का आगम हो जाता है // 498 // __एध् अ म् आन= एधमान ‘कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र से लिंग संज्ञा होकर बालकवत् एधमानः / स्त्रीलिंग में रमावत् ‘एधमाना' नपुंसकलिंग में कुलवत् एधमानं बनेगा। ऐसे ही पच् धातु से पचन्, पचन्ती, पचत् बनेंगे। आनश् में पचमान: पचमानां, पचमानं बनेंगे। अद्-अदन् / शीड्–शयान: आदि। ङानुबंध कृदन्त प्रत्यय के आने पर नाम्यंत धातु और विकरण को गुण नहीं होता है // 499 // ब्रू अन्त् ‘स्वरादाविवर्णोवर्णान्तस्य धातोरियुवौ' 83 सूत्र से ब्रुव् होकर ब्रुवन्त् है, लिंग संज्ञा होकर 'ब्रुवन्' बना / आनश् में बुवाण: / हु धातु से-हु अन्त् ‘जुहोत्यादीनां सार्वधातुके' 150 सूत्र से 'हु हु अन्त् पूर्वोऽभ्यास:' 151 से पूर्व को अभ्यास संज्ञा हुई पुन: 'हो जः' 152 सूत्र से अभ्यास के हकार को जकार होकर जुहु अन्त् रहा 'जुहोते: सार्वधातुके' 155 सूत्र से उकार को वकार होकर जुह्वन्त् बना / लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर “अभ्यस्तादन्तिरनकारः” 288 सूत्र से नकार का लोप होकर व्यञ्जनाञ्च' सूत्र से सि का लोप होकर 'जुह्वत्' बना / आनश् में—जुह्वान: बना / 'धा' धातु से-दधत् दधान: / दिवादि गण में-दिव् अन्त् है 'दिवादेर्यन्' सूत्र 182 से यन् विकरण होकर 183 सूत्र से दिव् को दीर्घ होकर २६वें सूत्र से अकार का लोप होकर 'दीव्यन्त्' बना / लिंग संज्ञा होकर 'दीव्यन्' स्त्रीलिंग में दीव्यन्ती, नपुंसक में दीव्यत् बना। सूयमान: / स्वादिगण में-नु विकरण होता है अत: सुन्वन्त् बना। सुन्वन् सुन्वान: / अश्नुवानः / “सर्वेषामात्मने सार्वधातुकेऽनुत्तमे पञ्चम्या:" ८७वें सूत्र से आत्मनेपद में गुण नहीं होता है। चिन्वन् चिन्वानः। भाव में-'सार्वधातुके यण' 31 सूत्र से यण् होकर आत्मनेपद में भूयमानं बना / ऐसे ही एध्यमानं / भाव में सर्वत्र नपुंसकलिंग और एकवचन ही होता है।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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