________________ 272 कातन्त्ररूपमाला न वाश्व्योरगुणे च // 328 / / वाश्व्योरगुणे च गुणिनि संप्रसारणं न भवति परोक्षायां / ववौ ववतुः ववुः / वविथ ववाथ ववथु: वव / ववौ वविव वविम / व्यध ताडने। विव्याध विविधत: विविधः / विव्यधिथ विव्यद्ध / वश कान्तौ उवाश ऊशतुः ऊशुः / उवशिथ उवष्ठ / व्यच व्याजीकरणे / विव्याच विविचतुः विविचुः / विव्यचिथ / प्रच्छ ज्ञीप्सायां। प्रच्छदीनां परोक्षायाम्॥३२९॥ प्रच्छादीनां संप्रसारणं न भवति परोक्षायां / पप्रच्छ पप्रच्छतुः पप्रच्छु: / पप्रच्छिथ पप्रष्ठ। ओव्रश्चू छेदने / ववश्च ववश्चत: वव्रश्च / ववश्चिथ / इवर्णतवर्गलसा दन्त्य: इति न्यायात सकारस्य दकारः / भ्रस्ज पाके / बभ्रज्ज बभ्रज्जत: बभ्रज्जुः / बभ्रज्जिथ / स्को: संयोगाद्योरन्ते च इति सकारलोपः। भृज्जादीनां ष इति षत्वं / बभ्रष्ठ / स्वपि वचि यजादीनां यण् परोक्षाशीष्षु / इति संप्रसारणं भवति / विष्वप् शये। सुष्वाप सुषुपतुः सुषुपुः सुष्वपिथ सुष्वष्य सुषुपथुः सुषुपुः / सुष्वाप सुष्वप सुषुपिव सुषुपिम। वच परिभाषणे / उवाच ऊचतुः ऊचुः / उवक्थ। यजो वयो वहेचैव वेज्येञौ ह्वयतिस्तथा। वद्वसौ श्वयतिथैव स्मृता नव यजादयः / / 1 / / यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु / इयाज ईजतुः ईजुः / इयजिथ / भ्रज्जादीनां ष: इति षत्वं / इयष्ठ / ईजथुः ईज / इयाज इयज ईजिव ईजिम / ईजे ईजाते ईजिरे / ईजिषे ईजाथे ईजिध्वे / ईजे ईजिवहे ईजिमहे / टुवप् बीजसन्ताने / उवाप ऊपतुः ऊपुः / उवपिथ उपप्थ ऊपथुः ऊप / ऊपे ऊपाते ऊपिरे / वहि प्रापणे / उवाह ऊहतुः ऊहुः / उवहिथ / सहिवहोरोदवर्णस्येति ओत्वं / उवोढ / ऊहे ऊहाते ऊहिरे। .. परोक्षा में 'वा' आदि में गुणी और अगुणी के आने पर संप्रसारण नहीं होता है // 328 // _ववौ ववतुः वः / वविथ ववाथ, ववथु: वव / ववौ वविव वविम / व्यध-ताड़ित करना / विव्याध विविधतुः विविधुः / विव्यधिथ, विव्यद्ध / वश–कान्ति अर्थ में है। उवाश ऊशंतु: ऊशुः / उवशिथ, उवष्ठ / व्यच-बहाना करना। विव्याच विविचतु: विविचुः / विव्यचिथ / प्रच्छ—प्रश्न करना। परोक्षा में प्रच्छ आदि को संप्रसारण नहीं होता है // 329 // पप्रच्छ पप्रच्छतुः पप्रच्छुः / पप्रच्छिथ पप्रष्ठ। ओवश्चू-छेदना / ववश्च वव्रश्चतुः वव्रश्चः वव्रश्चिथ / “लवर्णतवर्गलसा दन्त्या” इस न्याय से भ्रस्ज् के सकार को दकार होकर च वर्ग होकर 'भ्रज्ज्' बना। वभुज्ज वभुज्जतुः / थल, में-"स्को: संयोगाद्योरते च” 117, सूत्र से सकार का लोप होकर “भृज्जादीनां ष:" 261 सूत्र से ष होकर थ को ठ होकर वभ्रष्ठ बना। इट में बभुज्जिथ / “स्वपिवचियजादीनां यण् परोक्षाशीष्षु"। सूत्र से संप्रसारण हो जाता है। जिष्वप-शयन करना। सुष्वाप / सुषुपतुः सुषुपुः / सुष्वपिथ, सुष्वप्थ / वच–बोलना। उवाच ऊचतुः ऊचुः उवचिथ उवक्थ / यजादिगण में किन-किन धातु को लेना ? श्लोकार्थ-यज् वय वह वेञ् व्यञ् ह्वेञ्, वद वस और श्वि ये नव धातु यजादि कहलाते हैं / / 1 // यज–देव पूजा, संगतिकरण और दान देने अर्थ में है / इयाज ईजतुः ईजुः ‘इयजिथ' “भ्रज्जादीनां ष:” सूत्रे से ज् को ष् करके इयष्ठ बना। आत्मनेपद में—ईजे ईजाते ईजिरे। टुवप्-बीज बोना। उवाप ऊपतुः ऊपुः। उवपिथ, उवष्य। ऊपे ऊपाते ऊपिरे / वह–प्राप्त कराना / उवाह ऊहतुः उहुः उवहिथ / 'सहिवहोरोदवर्ण' इस सूत्र से अवर्ण को ओ होकर उवोढ “होढः" सूत्र से ह् को द हुआ है। ऊहे ऊहाते ऊहिरे / व्यञ्-बुनना।