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________________ 264 कातन्त्ररूपमाला न शासृनुबन्धानाम्॥३०१॥ शास ऋदनुबन्धानां चोपधाया ह्रस्वो न भवति इनि चण्परे / अशशासत् अशशासताम् अशशासन् / ढौकृ तौकृ गतौ / अडुढौकत अडुढौकेतां अडुढौकन्त / अतुतौकत / शासेरिति किं ? आङः शासूङ् इच्छायां / आशीशसत् भ्राज् भ्राष् दीप्तौ। भाषदीपजीवमीलपीडकणवणभणश्रणमणहेठलुपां वा // 302 // एषामुपधाया ह्रस्वो भवति वा इनि चण्परे / भाष् व्यक्तायां वाचि / दीप दीप्तौ। जीव प्राणधारणे। मील निमेषणे / पीड गहने / कण वण भण श्रण मण शब्दे / हेठ गतौ / लुप्लु छेदने अबिभ्रजत् अबिभ्रजतां अबिभ्रजन् / अबिभ्रजत / अबिभ्राजत् अबभ्राजत / अबिभ्रशत् / अबिभ्रशत / अबभ्राशत् / अबभ्राशत / अबिभषत। अबभाषत। अदीदिपत्। अदिदीपत्। अजीजिवत्। अजिजीवत्। अमीमिलत् / अमिमीलत् / अपिपीडत् / अपीपिडत् / अचीकणत् / अचकाणत् / अवीवणत् / अववाणत् / अबीभणत् / अबभाणत् / अमीमणत् / अममाणत् / अशीश्रणस् / अशश्राणत् / अजीहेठत् / अजिहेठत् / अलूलुपत् अलुलूपत् / चिति स्मृत्यां / अचिचिन्तत् / स्फुट परिहासे। शिट्परो घोषः // 303 // शिटः परो घोषोऽवशेप्यो भवति / शिटो लोप इत्यर्थः / अपुस्फुटत् / लक्ष दर्शनाङ्कनयोः / अललक्षत् / भक्ष अदने / अबभक्षत् / कुट्ट अनृतभाषणे। अचुकुट्टत् / लड उपसेवायां / अलीलडत् / मिदि तिल स्नेहने। अमिमिन्दत् / अतितिलत्। ओलडि उत्क्षेपे। अललण्डत्। पीड अवगाहने। शास और ऋदनुबंध की उपधा को इन् चण् के आने पर ह्रस्व नहीं होता है // 301 // - अशशासत् / ढौकृ, तौक़-गति अर्थ में हैं। अडुढौकत अतुतौकत / शासे: ऐसा क्यों कहा ? आयूर्वक शासूङ् धातु-इच्छा अर्थ में है। आशीशसत् / भ्राज् भ्राष्-दीप्ति अर्थ में हैं। भ्रण भाष भाष, दीप, जीव, मील, पीड कण, वण, भण, श्रण, मण, हेठ और लुप इन धातु की उपधा को इन् चण् के आने पर विकल्प से ह्रस्व होता. है // 302 // भाषस्पष्ट बोलना। दीप-दीप्त होना। जीव-प्राणधारण करना। मील-वंद करना। पीड-गहन / कण वण भण श्रण मण-शब्द करना। हेठ-गमन करना। लुप्ल-छेदन करना। भ्राज्-अबिभ्रजत् / अबभ्राजत् / अबभ्राजत। अबिभ्रषत। अबभ्राषत् / अबिभ्राषत् / अबिभाषत् अबभाषत / अदिदीपत् / अदीदिपत् / अजीजिवत् अजिजीवत् / अमीमिलत् / अमिमीलत् / अपिपीडत, अपीपिडत् / अचीकणत् / अचकाणत् / अवीवणत् अववाणत् / अबीभणत्, अबभाणत् / अमीमणत् अममाणत् / अशिश्रणत् / अशश्राणत् / अजीहेठत् अजिहेठत् / अलूलुपत् अलुलूपत् / चिति-स्मृति अर्थ में है। अचिचिंतत् / स्फुट-खिलना। शिट् के परे अघोष अवशेष रहता है // 303 // अर्थात् शिट् का लोप हो जाता है / अपुस्फुटत् / लक्ष-दर्शन और अंकन अर्थ में है। अललक्षत् / भक्ष-भोजन करना / अबभक्षत् / कुट्ट-झूठ बोलना। अचुकुट्टत् / लड्-उपसेवा अर्थ में- अलीलडत् / मिदि और तिल-स्नेह करना। अमिमिन्दत / अतितिलत्। ओलडि-उत्क्षेपण करना-अललण्डत् / पीड-अवगाहन करना अपीपिडत् / नट-अवस्यंदने-अनीनटत् / वध-संयमन करना / अवीबधत् / चुट छुट् कुट-छेदन करना। अचूचुटत् अचूछुटत् अचूकूटत् / पुट चुट-अल्पीभाव अर्थ में है। अपूपुटत् / अचूचुटत् / मुट्-चूर्ण करना, अमूमुटत् / घट-चलना, अजीघटत् / छद, षद, संवरण करना अची छदत्
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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