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________________ 230 कातन्त्ररूपमाला अभ्यस्तानामाकारस्य // 158 // अभ्यस्तानामाकारस्य लोपो भवत्यगुणे सार्वधातुके परे / जिहाते जिहते / जिही जिहाथे जिहीध्वे / जिहे जिहीवहे जिहीमहे // जिहीत जिहीयातां जिहीरन् / जिहीतां जिहातां जिहतां / जिहीष्व जिहाथां जिहीध्वं / जिहै जिहावहै जिहामहै। अजिहीत अजिहातां अजिहत // एवं माङ् माने शब्दे च / मिमीते मिमाते मिमते / मिमीषे मिमाथे मिमीध्वे / मिमे मिमीवहे मिमीमहे / डुधाञ् डुभृञ् धारणपोषणयोः। द्वितीयचतुर्थयोः प्रथमतृतीयौ // 159 // अभ्यासस्य द्वितीयचतुर्थयो: प्रथमतृतीयौ भवत: / बिभर्ति बिभृत: बिभ्रति / बिभर्षि बिभृथ: बिभृथः। बिभर्मि बिभृव: बिभृमः / बिभृते बिभ्राते बिभ्रते / बिभृषे बिभ्राथे बिभृध्वे / बिभ्रे बिभृवहे बिभृमहे / डुधाञ्हस्वः॥१६०॥ अभ्यासस्य ह्रस्वो भवति / दधाति।। तथोश्च दधातेः॥१६१॥ दधातेर्धातो: आदेस्तृतीयचतुर्थत्वं भवति तथो: सेध्वोश्चागुणे परत: / धत्त: दधति / दधासि धत्थः धत्थ / दधामि दध्व: दध्मः / धत्ते दधाते दधते / धत्से दधाथे धब्वे / दधे दध्वहे दध्महे / भावकर्मणोश्च / अगुण सार्वधातुक आने पर अभ्यस्त के आकार का लोप हो जाता है // 158 // जिहाते / जिहते / 'आत्मने चानकारात्' सूत्र 79 से नकार का लोप हो गया है / जिहीत / जिहीतां / अजिहीत। माङ् धातु माप करने और शब्द करने अर्थ में है। मा मा ते 156 से अभ्यास को 'इ' 157 से अभ्यस्त को 'ई' होकर मिमीते बना / डुधाञ् और डुभृञ् धातु धारण पोषण अर्थ में हैं। भृ भृ ति 156 से अभ्यास को इकार होकर भि अगले को गुण होकर भिभर ति है। अभ्यास के द्वितीय को प्रथम एवं चतुर्थ को तृतीय अक्षर हो जाता है // 159 // बिभर्ति / बिभृत: / बिभ्रति 'द्वयमभ्यस्तं' से अभ्यस्त संज्ञा करके 'लोपोऽभ्यस्तादन्तिन:' 154 से नकार का लोप गया अत: 'रमृवर्ण:' से संधि हो गई है। आत्मने पद में बिभृते। __ धा धा ति 'द्वितीय चतुर्थयो: प्रथमतृतीयौ' 159 सूत्र से पूर्व को तृतीय अक्षर होकर-दाधा ति रहा। धाञ् धातु में अभ्यास को ह्रस्व हो जाता है // 160 // 'दधाति' बना / दा धा तस् है / त, थ, से, ध्वे अगुणी विभक्तियों के आने पर धा धातु के आदि के तृतीय को चतुर्थ हो जाता है // 161 // धा धा तस् 'अभ्यस्तानामाकारस्य' 158 सूत्र से अभ्यस्त के आकार का लोप होकर 'अघोषे प्रथम:' से प्रथम अक्षर होकर 'डुधाञ् ह्रस्व:' से अभ्यास को ह्रस्व होकर धत्त: बना। दधासि धत्थ: धत्थ / दधामि दध्व: दध्मः / धा धा ते अभ्यास के चतुर्थ को तृतीय होकर ह्रस्व होकर पुन: 161 सूत्र से चतुर्थ हो गया और अभ्यस्त के 'आकार' का लोप होकर 'धत्ते' बना। ऐसे ही से ध्वे, विभक्ति में धत्से 'धद्ध्वे' बना। भावकर्म में
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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