________________ तिङन्त: 223 . ईश: परस्य सादेः सार्वधातुकस्यादाविद् भवति धुटि परे / ईशिषे ईशाथे ईड्ढवे / ईशे ईश्वहे ईश्महे / ईशीत ईशीयातां ईशीरन् / ईष्टां ईशातां ईशतां / ईशिष्व ईशाथां ईड्ढवं / ऐशि ऐश्वहि ऐश्महि / ईश्यते। शासु अनुशिष्टौ / शास्ति। शासेरिदुपधाया अण्व्यञ्जनयोः // 124 // शासेरुपधाया: इद्भवति अण्व्यञ्जनयो: परत: / ___ शासिवासिघसीनां च // 125 / / निमितात्परः शासिवसिघसीनां स: षत्वमापद्यते। शिष्टः शासति / शास्सि। शिष्यात् शिष्यातां शिष्युः / शास्तु शिष्टात् शिष्टां शासतु। शा शास्तेश्च // 126 / / शास्तेही परे शादेशो भवति चकारात्, हेर्धिर्भवति / शाधि, शिष्टात् शिष्टं शिष्ट / शासानि शासाव शासाम्। . सस्य शस्तन्यां दौ तः॥१२७॥ ह्यस्तन्यां दौ परे सस्य तो भवति / अशात् अशिष्टां अशासुः / . ईश के परे स आदि सार्वधातक विभक्ति से धट के आने पर इट का आगम हो जाता है। पुन: नामि से परे सकार को ष होने से 'ईशिषे' बना। 'ईश् ध्वे है छशोश्च' से श् को ष् होकर 'धुटां तृतीयश्चतुर्थेषु' से तृतीय अक्षर 'ड' होकर पुन: 'तवर्गस्य षटवर्गाट्टवर्ग:' सूत्र से तवर्ग को टवर्ग-ध् को ढ् होकर 'ईड्ढ्वे' बना। सप्तमी में—ईशीत / पंचमी में—ईष्टां ईशातां ईशतां। . .. स्व के आने पर इट् होकर ईशिष्व 'ध्वं' में ईड्ढ्वं बना। ह्यस्तनी में—ऐष्ट ऐशातां ऐशत, ऐष्ठा: ऐशाथां ऐड्ढ्वं ऐशि ऐश्वहि ऐश्महि। भाव कर्म में—ईश्यते / शास् धातु अनुशासन अर्थ में है। शास् ति है / शास्ति / शास् तस् है / अण, अगुण व्यंजन वाली विभक्ति के आने पर शास् की उपधा को इत् होता है॥१२४ // अत: आ को 'इ' होकर शिस् तस् रहा। - निमित्त से परे शास् वस् घस् के स को 'ष' हो जाता है // 125 // पुन: 'तवर्गस्य षट्वर्गाट्वर्ग:' नियम से ष् से परे तवर्ग को टवर्ग होकर 'शिष्टः' बना। शास् अन्ति / 'जक्षादिश्च' 109 सूत्र से शास् को अभ्यस्त संज्ञा करके 'लोपोऽभ्यस्तादन्तिन:' 110 सूत्र से अन्ति के नकार का लोप हो गया। अत: ‘शासति' बना / सप्तमी-सूत्र 124 से इत् होकर 'शिष्यात्' बना। 'शास् हि' "हि' के परे शास् को 'शा' आदेश एवं चकार से हि को धि होता है // 126 // शाधि / शास् दि है। ह्यस्तनी की 'दि' विभक्ति के आने पर स् को त् हो जाता है // 127 // एवं 'व्यंजनाद्दिस्यो:' सूत्र 116 से दि सि का लोप हो जाता है / अशात् अशिष्टां / अन् को उस् होकर अशासुः / शास् सि अट् का आगम होकर