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________________ 210 कातन्त्ररूपमाला अनिदनुबन्धानामगुणेऽनुषङ्गलोपः॥ 56 // इदनुबन्धवर्जितानां धातूनां अनुषङ्गलोपो भवति अगुणे प्रत्यये परे कर्मणि। स्रस्यते स्रस्येते स्रस्यन्ते / एवं भ्रस्यते / ध्वस्यते / अत एव वर्जनादिदनुबन्धानां धातूनां नुरागमोस्ति गुणागुणे प्रत्यये परे / ग्रथि वकि कौटिल्ये। शकि शङ्कायां / ग्रन्थते / वङ्कते / शङ्कते / ग्रन्थ्यते ग्रन्थ्येते / शङ्कयते / शङ्कयेते शङ्कयन्ते। वङ्कयते। वयेते। वक्ष्यन्ते। टुनदि समृद्धौ / नन्दति नन्दत: नन्दन्ति / नन्द्यते। वदि अभिवादनस्तुत्योः / वन्दते वन्देते वन्दन्ते / कर्मणि-वन्द्यते / दंश दशने / षञ्ज स्वङ्गे / प्वज परिष्वङ्गे। रञ्ज रागे। दंशिषञ्जिष्वञ्जिरञ्जीनामनि // 57 // एतेषामनि विकरणे परेऽनुषङ्गलोपो भवति / दशति / दशेत् / दशतु / अदशत् / भावे-दश्यते / सजति / सजेत् / सजतु / असजत् / सज्यते / परि बजते / रजति / रजेदित्यादि। नये नयेयुः नये: नयेत नयेयम् नयामि नयाव: नयाम: नयावहे नयामहे , सप्त-नयेत् नयेता नयेत नयेयातां नयेरन् नयेतं नयेथाः नयेयाथां नयेध्वं नयेव नयेम नयेय नयेवहि. नयेमहि पंच-नयत, नयतात् नयतां नयन्तु नयतां नयेतां नयन्तां नय, नयतात् नयतं - नयत नयस्व नयेथां नयध्वं नयानि नयाव नयाम नयै नयावहै नयामहै ह्य- अनयत् अनयतां अनयन् अनयत अनयेतां अनयन्त अनय: अनयतं अनयत अनयथाः अनयेथां अनयध्वं अनयम् अनयाव अनयाम अनये अनयावहि. अनयामहि भाव में नीयते / कर्म में नीयते / नीयेत / नीयतां / अनीयत / स्रन्स भ्रन्स धातु नष्ट होने के अर्थ में है। ध्वन्स धातु गति अर्थ में है। “मनोरनुस्वारो धुटि" इस सूत्र से नकार को अनुस्वार हो गया। स्रंसते, भ्रंसते, ध्वंसते / ऐसे चारों विभक्तियों में चलेंगे। इत् अनुबंध से रहित धातु के अनुषंग का लोप हो जाता है // 56 // कर्मणि प्रयोग में गुण रहित प्रत्यय के आने पर अनुषंग का लोप होता है अंत: स्रस्यते स्रस्येते स्रस्यंते / भ्रस्यते / ध्वस्यते / इसी नियम से वर्जित होने से गुणी अगुणी प्रत्यय के आने पर इत् अनुबन्ध वाले धातु को 'नु' का आगम होता है / 'अथि, वकि' धातु कुटिलता अर्थ में है 'शकि' शंका अर्थ में है। इन तीनों धातुओं में इकार का अनुबंध है अत: नु का आगम होकर ग्रन्थते वङ्कते, शङ्कते / कर्मणि प्रयोग में-ग्रन्थ्यते, वक्यते / शक्यते / इनके पूरे रूप चारों में चलेंगे। 'टनदिधात समद्धि अर्थ में है ट और इकार का अनबंध हआ है। न का आगम होकर नन्दति. नन्दत: नंदन्ति बना। कर्म में—नंद्यते। 'वदि' धातु अभिवादन और स्तुति अर्थ में है। वन्दते वन्देते वन्दन्ते / आदि / कर्म में वंद्यते। दंश धातु काटने अर्थ में है। षञ्ज स्वंग अर्थ में है षञ्ज, आलिंगन अर्थ में है। रञ्ज धातु राग अर्थ में है। अन् विकरण के आने पर दंश् षञ् ष्वंज रञ् धातु के अनुषंग का लोप हो जाता है // 57 // ___अत: दशति, दशेत्, दशतु, अदशत् बनेंगे। भाव में—दश्यते। पंज-सजति, सजेत् सजतु असजत् / सज्यते, परिष्वजते / रजति इत्यादि।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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