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________________ तद्धितं . 181 तसोन तृतीयो मत्वर्थे / / 507 // तकारसकारयोस्तृतीयो मत्वर्थे न भवति / मत्वर्थे इति कोऽर्थः ? अस्त्यर्थे / पश्चात् रेफसोर्विसर्जनीये प्राप्ते सकृद् बाधितो विधिर्बाधित एव सत्पुरुषवत् / मायास्यास्तीति मायावी मायावान् / मेधास्यास्तीति मेधावी मेधावान् / स्रगस्वास्तीति स्रग्वी स्रग्वान् / व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभारिति न्यायात् चवर्गदृगादीनां चेति गत्वमनेन न्यायेन अघोषे प्रथमः / वर्गप्रथमास्तृतीयान् / बहुलमिन् भवति / ज्ञानमस्यास्तीति ज्ञानी। दण्डोऽस्यास्तीति दण्डी / शिखास्यास्तीति शिखी / देवोऽस्यास्तीति देवी / इत्यादि / तदस्य संजातं तारकादेरितच // 508 // तदिति प्रथमान्तादस्य संजातमित्यस्मिन्नर्थे तारकादेराकृतिगणात् पर इतच् प्रत्ययो भवति / तारका संजाता अस्येति तारकितं नभः / एवं कण्टकित: कर: / पल्लवितो वृक्षः / - संख्यायाः पूरणे डमौ // 509 // संख्याया: पूरणेऽर्थे डमौ भवत: / एकादशपर्यन्तं संख्या / तत: परमसंख्या // संख्यादेर्नान्ताया मो भवति / शेषायाश्च डो भवति / तत्कथं ? वाशब्दात् / वाशब्द: क्वास्ते ? वाणपत्ये इत्यत्र / मत्वर्थ में तकार और सकार को तृतीयाक्षर नहीं होता है // 507 // इस सूत्र से सकार को तृतीय अक्षर नहीं हुआ पुन: “रेफसोर्विसर्जनीयः" इस १३०वें सूत्र से सकार को विसर्ग प्राप्त था किन्तु “सकृद् वाधितो विधिर्वाधित एव" जिसकी विधि एक बार बाधित कर दी जाती है वह बाधित ही रहता है पुन: उसमें दूसरी विधि भी बाधित ही रहती है जैसे सत्पुरुष का वचन एक होता है। अत: तेजस्वान् रहा है। मत्वर्थ शब्द से क्या अर्थ लेना ? अस्ति का अर्थ लेना अर्थात् मत्वर्थ से कहे गये प्रत्यय अस्ति अर्थ के वाचक होते हैं। - माया अस्यास्तीति = मायावी, मायावान् / मेधावी, मेधावान् / स्रक् अस्यास्ति इति = स्रग्वी। स्रग्वान्। ___"व्यंजनांतस्य यत्सुभोः” इस ४३०वें सूत्र के न्याय से और “चवर्ग दृगादीनां च” २५४वें सूत्र से स्रज् के ज् को गकार हो गया है। 'बहुलमिन् भवति' इस नियम के अनुसार ज्ञानम् अस्य अस्तीति ज्ञानिन्, लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति के आने से 'ज्ञानी' बना। दण्डो अस्यास्ति इति = दण्डी, शिखा अस्यास्तीति = शिखी। देवो अस्यास्तीति, देविन् = देवी। इत्यादि। 'वह इसके हुआ' इस अर्थ में तारकादि शब्दों से 'इतन्' प्रत्यय होता है // 508 // 'तत्' इस प्रथमान्त से 'इसके हुआ' इस अर्थ में तारका आदि आकृति गण से परे 'इतच्' प्रत्यय होता है। तारका: संजाता: अस्य इति, तारका+जस, विभक्ति का लोप होकर “इवर्णावर्णयोर्लोपः" इत्यादि सत्र से आकार का लोप होकर लिंग संज्ञा होकर 'तारकितं' बना, इसका अर्थ है आकाश अर्थात् तारा उदित हो रहें जिसके ऐसा तारकित आकाश। ऐसे ही कण्टका: संजाता अस्येति ‘कण्टकित:' करः / पल्लवा: संजाता अस्येति = पल्लवित:-वृक्षः / संख्या के पूरण अर्थ में 'ड' और 'म' प्रत्यय होते हैं // 509 // एकादश पर्यंत संख्या कहलाती है इसके आगे असंख्या हो जाती है। संख्यादि नकारांत से 'म' प्रत्यय होता है और शेष संख्या से 'ड' प्रत्यय होता है। ऐसा क्यों ? 'वा' शब्द से ऐसा नियम है। 'वा' शब्द कहाँ है ? 'वाणपत्ये' ४७३वें सूत्र में 'वा' शब्द है उससे उपर्युक्त नियम समझ लेना चाहिये।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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