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________________ तद्धितं 179 भावेऽभिधेये तत्वौ भवतः। शब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तं भावो भवति। तप्रत्ययस्य स्त्रियां वृत्तिः / त्वप्रत्ययस्य नपुंसके वृत्तिः / पटस्य भाव: पटता पटत्वं / एवं अश्वता अश्वत्वं / गोता गोत्वं / इति द्रव्यभावः / शुक्लता शुक्लत्वं / रूपता रूपत्वं / रसता रसत्वं / ज्ञानता ज्ञानत्वं / सुखता सुखत्वं इति गुणभाव: / उत्क्षेपणता उत्क्षेपणत्वं / गमनता गमनत्वं / इति क्रियाभावः / यण च प्रकीर्तितः॥५०३॥ भावेऽभिधेये यण् प्रकीर्तिततस्तत्वौ च। जडस्य भावो जाड्यं जडता जडत्वं / एवं ब्राह्मण्यं ब्राह्मणता ब्राह्मणत्वं / . अघुट्स्वरवत्तद्धिते ये // 504 / / तद्धिते ये परे अघुट्स्वरवत्कार्यं भवति / अघुट्स्वरादौ सेटकस्यापि वन्सेर्वशब्दस्योत्वमित्युक्तं / विदुषां भावो वैदुष्यं / प्रकीर्तितग्रहणाधिक्यादन्यस्मिन्नर्थेऽपि यः प्रकीर्तितस्तत्वौ च भवत: / ब्राह्मणस्य कर्म ब्राह्मण्यं ब्राह्मणता ब्राह्मणत्वं / पुन:पुनर्भाव: पौन:पुन्यं / क्वचिदुभयपदवृद्धिः। पौन: पौन्यं / सौभाग्यं / अणि च पदद्वये वृद्धौ आग्निमारुतं / कर्म / सौहार्द।। शब्द की प्रवृत्ति के निमित्त भाव होता है। 'त' प्रत्यय स्त्रीलिंग में होता है एवं 'त्व' प्रत्यय नपुंसकलिंग में होता है। पटस्य भावः, पट + ङस्, विभक्ति का लोप होकर 'त' प्रत्यय हुआ। पुन: "स्त्रियामादा" .....सूत्र से 'आ' प्रत्यय होकर लिंग संज्ञा हुई सि विभक्ति में 'पटता' बना। वैसे ही नपुंसक लिंग में 'पटत्वं' बना। ऐसे ही अश्वस्य भावः = अश्वता, अश्वत्वं / गो: भावः = गोता, गोत्वं / इन शब्दों : में द्रव्य से भाव प्रत्यय हुआ है। गुण से भाव प्रत्यय-शुक्लस्य भावः = शुक्लता, शुक्लत्वं / / रूपस्य भावः =रूपता, रूपत्वं / रसस्य भावः= रसता, रसत्वं / ज्ञानस्य भावः =ज्ञानता, ज्ञानत्वं / सुखता सुखत्वं / क्रिया से भाव प्रत्यय-उत्क्षेपणस्य भावः = उत्क्षेपणता, उत्क्षेपणत्वं / गमनस्य भावः = गमनता, गमनत्वं / इत्यादि। ___भाव अर्थ में 'यण' प्रत्यय होता है // 503 // त और त्व भी होते हैं। जडस्य भावः विभक्ति का लोप होकर ण अनबन्ध होने से वद्धि हो गई एवं “इवर्णावर्ण" इत्यादि सूत्र से. अवर्ण का लोप होकर, लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आने से 'जाड्यं' बना, त, त्व, प्रत्यय से 'जडता, जडत्वं' बना / ऐसे ही ब्राह्मणस्य भावः = 'ब्राह्मण्यं, ब्राह्मणता, ब्राह्मणत्वं' बना। सुजनस्य भावः= सुजनता, सुजनत्वं, सौजन्यं / दक्षिणस्य भावः = दाक्षिण्यं, स्थिरस्य भाव:=स्थैर्यं / गम्भीरस्य भावः = गांभीर्यं / तद्धित का यण् प्रत्यय आने पर अघुट्स्वरवत् कार्य होता है // 504 // विदषां भाव: विद्वान्स+आम विभक्ति का लोप होकर अघट स्वर आदि विभक्ति के आने पर वन्स् के 'व' शब्द को उकार हो गया, नकार का लोप हो गया। पूर्वस्वर की वृद्धि होकर लिंग संज्ञा होकर 'वैदुष्यं' बना। 503 सूत्र में 'प्रकीर्तित' शब्द अधिक है उससे अन्य अर्थ में भी यण् प्रत्यय होता है और 'त, त्व' प्रत्यय होता है। जैसे ब्राह्मणस्य कर्म = ब्राह्मण्यं, ब्राह्मणता, ब्राह्मणत्वं / पुन: पुनर्भाव: = पौन: पुन्यं, . . 1. भवतः अस्मात् अभिधानप्रत्ययाविति भावः।।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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