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________________ 156 कातन्त्ररूपमाला ___ अष्टन् शब्दस्य आत्वं भवति कपाले परे हविष्यभिधेये। अष्टाकपाल: पुरोडाश: / अयमुत्तरपदद्विगः / पञ्च च ते गावश्च पञ्चगवाः / समासान्तर्गतानां वा राजादीनामदन्तता इति / चत्वारश्च ते पन्था चतुष्पथाः। इति तद्धितपदार्थः / पञ्चानां पूलानां समाहार: पञ्चपूली। एवं त्रिलोकी। अकारान्तो द्विगुसमाहारो नदादौ पठ्यते पात्रादिगणं वर्जयित्वा / पात्रादिगण इति किं ? त्रयाणां भुवनानां समाहारस्त्रिभुवनं / समाहारद्विगुरयं / त्रिभुवनेन त्रिभुवनाय / त्रिभुवनात् / त्रिभुवनस्य / त्रिभुवने / (सर्वत्रैकवचनमेव) पंचसु कपालषेषु संस्कृत: ओदन: तत्पुरुषावुभौ // 435 // उभौ द्विगुकर्मधारयौ तत्पुरुषौ भवत: / अब्राह्मणः / अनजः / कदश्व इत्यादि / इति कर्मधारयः / इति तत्पुरुषसमासः। आरूढो वानरो यं वृक्षं / ऊढो रथो येन। उपहत: पर्यस्मै। पतितं पण यस्मात् / चित्रा गावो यस्य / करा: पुरुषा यस्मिन्देशे। लम्बौ कौँ यस्य / दीर्धी बाहू यस्य / इति स्थिते अत: अष्टाकपाल: बना। ये उत्तर द्विगु के उदाहरण हैं। तद्धितार्थ द्विगु-पंच च ते गावश्च ऐसे विग्रह हुआ। पञ्चन् + जस् गो+जस्, विभक्ति का लोप होकर लिंग संज्ञा हुआ, नकार का लोप एवं जस् विभक्ति आकर “पञ्चगावः।" चत्वारश्च वे पंथानश्च विग्रह हुआ। पुन: चत्वार+जस् पंथि+जस् विभक्तियों का लोप होकर “वाशब्दस्योत्वं" से उकार होकर “समासांतर्गतानां वा राजादीनामदन्तता” इस सूत्र से पंथि को अकारांत होकर लिंग संज्ञा होकर 'चतुष्पथ' बना। पुन: जस् विभक्ति आकर चतुष्पथा: बना। इस प्रकार से तद्धितार्थ द्विगु हुआ। समाहार द्विगु-पञ्चानां फलानां समाहार: ऐसा विग्रह हुआ। : पञ्चन् + आम् फल+ आम् विभक्ति का लोप होकर नकार का लोप होकर 'पञ्चफल' रहा पुन: पात्रादिगण के अकारांत द्विगुसमाहार नदादिगण में पढ़े जाते हैं अत: “नदाद्यश्च'। , . इत्यादि सूत्र से 'ई' प्रत्यय होकर १३६वें सूत्र से अकार का लोप होकर ‘पञ्चफली' बना। अब लिंग संज्ञा करके नदीवत् इसके रूप चला लीजिये / इसी प्रकार से त्रिलोकी शब्द भी बना है। पात्रादिगण को छोड़कर कहा है सो पात्रादिगण में क्या क्या लेना ? त्रयाणां भुवनानां समाहार: 'त्रिभुवनम्' ये पात्रादि गण में हैं अत: ई प्रत्यय नहीं हुआ। ये भी समाहार द्विगु में ही है इस त्रिभुवन के रूप सर्वत्र एकवचन में चलते हैं यथात्रिभुवनं, त्रिभुवनेन, त्रिभुवनाय, त्रिभुवनात्.त्रिभुवनस्य,त्रिभुवने।। ये द्विगु और कर्मधारय दोनों ही तत्पुरुष समास हैं // 435 // तत्पुरुष के कर्मधारय भेद में ही नञ् समास अंतर्भूत है। जैसे न ब्राह्मण:-अब्राह्मणः / न अज:-अनजः, कुत्सित् अश्व-कदश्व: इत्यादि। ये कर्मधारय और द्विगु समास तत्पुरुष समास में ही अंतर्भूत हो जाते हैं। इस प्रकार से तत्पुरुष समास का प्रकरण पूर्ण हुआ। ___ अथ बहुव्रीहि समास का वर्णन आरूढों वानरो यं वृक्षं स:-जिस वृक्ष पर यह बन्दर चढ़ा हुआ है (वह वृक्ष)। ऊढो रथो येन-जिसने रथ को खींचा (वह व्यक्ति)। उपहृत: पशुः यस्मै—जिसके लिये पशु दिया (वह)। पतितं पर्णं यस्मात्-जिससे पत्ता गिरा (वह वृक्ष)।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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