________________ कुछ ही समय बीता था कि पूज्य माताजी का स्वास्थ्य एकदम कमजोर हो गया। एक वर्ष में दो बार ऐसी भी स्थिति आई जब उनका बच पाना कठिन प्रतीत होने लगा था। किन्तु आयु कर्म शेष होने से एवं हम सबके पुण्योदय से वह कठिन समय व्यतीत हो गया। माताजी को मानो नया जीवन ही प्राप्त हआ। पुन: लग गईं ज्ञानध्यान में, नतन साहित्य निर्माण में। पुन: इन्दौर में गोमटगिरि प्रतिष्ठा के अवसर पर मैंने पूज्य माताजी के समक्ष अपने दीक्षा लेने के भाव प्रकट किये और उन्होंने क्षण मात्र विचार कर स्वीकृति प्रदान की, किन्तु उन्होंने यह मनोभावना व्यक्त की कि दीक्षा हस्तिनापुर में होगी। अगले ही दिन भाई रवीन्द्र एवं श्री जिनेन्द्र प्रसाद ठेकेदार इन्दौर गये एवं आचार्यप्रवर श्री विमलसागरजी महाराज से हस्तिनापुर पधारने का निवेदन किया। आचार्य श्री ने निर्णय दिया फिरोजाबाद चातुर्मास के बाद वे आवेंगे। और इस प्रकार दीक्षा के भावों को लिए हुए मेरा पूरा वर्ष व्यतीत हो गया। पूज्य माताजी की आज्ञा एवं आशीर्वाद से मैं श्री राजेन्द्र प्रसादजी कम्मोजी श्री जिनेन्द्र प्रसादजी ठेकेदार एवं श्री सुरेशचन्दजी गोटे वालों के साथ फिरोजाबाद पहुँचकर वार सुदी 10 वीर नि. सं 2512 (विजया दशमी-दशहरे) के दिन पूज्य आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज के चरणों में हस्तिनापुर पधार कर क्षुल्लक दीक्षा प्रदान करने के लिए श्रीफल चढ़ाया। जिस पर आचार्य श्री ने सहर्ष स्वीकृति.. प्रदान की। आचार्य श्री ने संसघ हस्तिनापुर पधारकर मुझे 8 मार्च 1987 को क्षुल्लक दीक्षा देकर “मोतीसागर” नाम प्रदान किया। इस कातन्त्र की हिन्दी टीका सहित प्रकाशन की कई वर्षों से आवश्यकता प्रतीत हो रही थी। माताजी को अनुवाद किये भी 14 वर्ष व्यतीत हो गये थे। इस बीच माताजी द्वारा लिखी गई पुस्तकों में से 81 ग्रन्थ लाखों की संख्या में प्रकाशित हो चुके थे। तब मार्च 1987 में इसका प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ। पुन: यह दूसरा संस्करण प्रकाशित हो रहा है। आशा है इस हिन्दी टीका सहित प्रकाशन से और भी अनेकानेक विद्यार्थियों को संस्कृत के पठनपाठन में सहायता मिलेगी। जिससे माताजी की तरह ज्ञान अर्जित करके जिनवाणी के प्रचार-प्रसार में अग्रसर हो सकेंगे। 11 अक्टूबर 1992 पीठाधीश, क्षुल्लक मोतीसागर जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर। (16)