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________________ कारकाणि 143 तुल्यार्थे योगे लिङ्गात् षष्ठी तृतीया च भवति / देवदत्तस्य तुल्य:, देवदत्तेन तुल्य: / देवदत्तस्य समान: देवदत्तेन समान: / इत्यादि। किं सम्प्रदानं ? कस्मिन्नर्थे चतुर्थी ? सम्प्रदानकारके चतुर्थी / यस्मै दित्सा रोचते धारयते वा तत्सम्प्रदानम् / / 396 // यस्मै दातुमिच्छा यस्मै रोचते यस्मै धारयते वा तत्कारकं सम्प्रदानसंज्ञं भवति / ब्राह्मणाय गां ददाति / देवदत्ताय रोचते मोदकः / यज्ञदत्ताय धारयते शतं / विष्णुमित्रो यतिभ्यो दानं ददाति / देवाय रोचते हवि: / मोक्षाय ज्ञानं धारयते / पुण्यार्थे चतुर्थी भवति नान्यत्र / राज्ञो दण्डं ददाति / न तत्र पुण्यं / पुनरागमने षष्ठी रजकस्य वस्त्रं ददाति / नमःस्वस्तिस्वाहास्वधालंवषड्योगे चतुर्थी // 397 // नम आदिभिर्योगे लिङ्गाच्चतुर्थी भवति / नमो देवाय / स्वस्ति जगते / स्वाहा हुताशनाय / स्वधा पितृभ्यः / अलं मल्लाय प्रतिमल्ल: / शक्तो मल्लाय प्रतिमल्ल: / वषडिन्द्राय / स्वाहा स्वधा वषट् दाने / तादर्थे // 398 // तदर्थभावे द्योत्ये लिङ्गाच्चतुर्थी भवति। मोक्षाय तत्त्वज्ञानं / भुक्तिप्रदानाभ्यां धनं / गुणेभ्यः सत्सङ्गतिः। यथा-देवदत्तस्य तुल्य:, देवदत्तेन तुल्य:-देवदत्त के समान / अर्थ दोनों का एक ही है / इत्यादि / किस अर्थ में चतुर्थी होती है ? सम्प्रदान कारक में चतुर्थी होती है। सम्प्रदान क्या है ? जिसके लिये देने की इच्छा है जिसे रुचता है अथवा जो धारण करता है वह संप्रदान कारक होता है // 396 // / जैसे—ब्राह्मणाय गां ददाति—ब्राह्मण को गाय देता है। देवदत्ताय रोचते मोदक:-देवदत्त को लड्डु रुचता है। . ' यज्ञदत्ताय धारयते शतं यज्ञदत्त के लिये सौ रुपये धारण करता है / इत्यादि / यहाँ पुण्य अर्थ में चतुर्थी होती है अन्यत्र नहीं होती। जैसे—राज्ञो दण्डं ददाति–राजा को दण्ड देता है। यहाँ दण्ड * देना 'दानरूप' पुण्य कार्य न होने से उसमें षष्ठी हो गई। पुनरागमन में भी षष्ठी हो जाती है। जैसे-रजंकस्य वस्त्रं ददाति-धोबी को कपड़े देता है। यहाँ देकर पुन: वापस लेना है अत: षष्ठी हो गई चतुर्थी नहीं हुई। ____ नमः स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलं और वषट् के योग में चतुर्थी होती है // 397 / / यथा-नमो देवाय देव को नमस्कार हो। स्वस्ति जगते-जगत् का कल्याण हो / स्वाहा हुताशनाय-अग्नि को स्वाहा स्वधापितृभ्य:पितरों के लिये स्वधा। अलं मल्लाय प्रतिमल्ल:-मल्ल के लिये प्रतिमल्ल समर्थ है / वषड् इंद्राय–इन्द्र के लिये। ये स्वाहा, स्वधा और वषट् देने के अर्थ में हैं अर्थात् आहुति, अर्घ्य आदि के समर्पण में ये बोले जाते हैं। तदर्थ भाव को प्रकट करने में चतुर्थी होती है // 398 // जैसे—मोक्षाय ज्ञानं—ज्ञान मोक्ष के लिये है। भुक्ति प्रदानाभ्यां धनं-भोग और दान के लिए धन है। गुणेभ्य: सत्संगति:-गुणों के लिये सत्संगति होती है।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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